ग़ज़ल
ऐ मुहब्बत हमें दर्द इतना न दे
भूल जाए जहाँ गर्द इतना न दे
कारवाँ ये हमारा यूं चलता रहे
याखुदा तू हमें सर्द इतना न दे
पाँव सिमटें रहें इक चादर में मेरे
मुझको लंबा कोई फ़र्द इतना न दे
आबरू रख सकूँ मैं क़लम की मेरे
हूं मैं काबिल मुझे कर्द इतना न दे
सिर नवातीं हूं मेरे खु़दा सामने
बेख़बर तू कोई मर्द इतना न दे
— प्रीती श्रीवास्तव