ग़ज़ल
एक सुनहरे तारों वाला जाल सियासत है भैया।
बीत गया जो उस युग का कंकाल सियासत है भैया।
आरोपों-प्रत्यारोपों के वार निरन्तर जारी हैं,
आम-जनों के तो जी का जंजाल सियासत है भैया।
इसके, उसके, सबके दर पर ईडी-सीबीआई है,
जाने किस-किस मुद्दे की पड़ताल सियासत है भैया।
मगरमच्छ पाला करता था अपने दुश्मन की ख़ातिर,
‘शान’ फ़िल्म का खलनायक शाकाल सियासत है भैया।
खींच रहे हैं वे वोटों को लालच की ज़ंजीरों से,
सब कुछ मुफ़्त लुटाने वाला माल सियासत है भैया।
वादों की किसने देखी है, माँग रहे हैं लोग नक़द,
यह कहिए अब पैसों की टकसाल सियासत है भैया।
गिरगिट जैसा रंग बदलने में सारे ही माहिर हैं,
आदर्शों की नगरी में कंगाल सियासत है भैया।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’