कहानी

सफर

खिडकी से बाहर झांकते हुए रुपा गहरी सोच में डूबी थी। पता नहीं, नौकरी मिलेगी भी या नहीं? मिल गई तो सबकुछ ठीक हो जायेगा।

गुडिया की पढ़ाई, छोटू का क्रिकेट का शौक। आज वह परिवार का संबल बन सकती है।

काम वह पूरी निष्ठा, लगन, मेहनत से करेगी। मिल तो जाये नौकरी। घडी की सुई बारबार यही पर अटकती है।

सोचते-सोचते रुपा का मन कब भूतकाल में रमण करने लगा, पता ही न चला।

बाबा कहते थे, 

“क्यों हम केवल चाकरी का ही सोचे?

क्या हम छोटा सा अपना उद्यम नहीं कर सकते? आत्मविश्वास, ज्ञान और कौशल हो तो सब संभव है।”

माँ भी तो हमेशा कहती है, 

“हूनर तराशो, उसे कमाई का जरिया बनाओ। हम जैसी कई महिलाएं हैं।

उनके साथ कुछ खास खाद्यान्न बनाना शुरु करो, जैसे चटणी, अचार, पापड….लिस्ट लंबी है।

ठान लिया उसने, अगर नौकरी नहीं मिली तो वह अपना उद्यम ही करेगी। खुशी से चिल्लाई, 

“हां बाबा, मैं कर सकती हूँ।”

अपनी ही दुनिया में खोई वह भूल गयी कि वह सफर कर रही है। और भी लोग साथ हैं।

पीछे की सीट पर बैठे आलोक ने आगे आकर पुछा,

“क्या हो गया?”

वह जानती है उसे। साथ वाली गली में ही रहता है वह।

“आपकी संकल्पना बहुत अच्छी है। सही है। हमें आत्मनिर्भर बनना होगा। तभी हम बेरोजगारी के डंख बच पायेंगे।”

“चलो, साथ काम करते है।”

धीरे-धीरे साथी जुडते गये। घर से छोटा ऑफीस, बडा ऑफीस….सफर चलता रहा।

आसपास की महिलाओं की संघटना बनाई गई। जोश-खरोश से गृह उद्योग की शुरुआत  की गयी।

बुजुर्ग महिला-पुरुष सब पर नजर रखते। समय-समय पर सलाह देते। 

सबको खुला चैलेंज दिया गया था। नये-नये लोग जुडते जा रहे थे।

आज वे यशस्वी उत्पादक हैं, परिवार, समाज, भारत देश का गौरव और सफल उद्यमी।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८