ख़्वाबों की तहरीर और एक मज़ाक
अली और ज़ैनब, दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। क्लास के बाद अक्सर लाइब्रेरी के एक शांत कोने में मिल बैठते, किताबों के बीच छुपकर अपने सपनों की बातें करते। उनकी मोहब्बत धीरे-धीरे परवान चढ़ रही थी। पर, इम्तिहान के बाद ज़िंदगी ने उन्हें अलग रास्तों पर डाल दिया—अली कश्मीर चला गया और ज़ैनब ने भोपाल की यूनिवर्सिटी में दाख़िला ले लिया। दूरी ने उनके दिलों को और भी करीब कर दिया। चिट्ठियों का सिलसिला चलता रहा। हर ख़त में वादे, सपने और एक-दूसरे के बिना अधूरी ज़िंदगी का जिक्र होता।
एक दिन अली को शरारत सूझी। उसने ज़ैनब को एक ख़त लिखा, “ज़ैनब, तुम नाराज़ तो नहीं होगी? यहाँ कॉलेज में एक कश्मीरी लड़की है, उसकी आँखों में झीलों सी गहराई है। न जाने कब दिल उसकी तरफ़ माइल हो गया। अब शायद मेरी ज़िंदगी उसके साथ जुड़ गई है। तुम खुश रहो। — अली” अली को यकीन था कि ज़ैनब गुस्सा करेगी, नाराज़ होकर तुरंत जवाब देगी या शायद मज़ाक समझकर खफ़ा हो जाएगी। लेकिन ज़ैनब ने न कोई शिकायत की, न सवाल। सिर्फ एक छोटा सा जवाब आया, “अली, तुम्हें नई ज़िंदगी मुबारक हो। अल्लाह तुम्हें खुश रखे। — ज़ैनब” ये अल्फ़ाज़ अली के दिल में तीर की तरह उतर गए। उसे लगा शायद उसकी शरारत ने सब कुछ बदल दिया है। अब वह हर रोज़ ज़ैनब के ख़त का इंतज़ार करता, मगर उसके बाद कोई ख़त न आया। अली के दिल में एक अजीब सी बेचैनी थी। ज़ैनब की खामोशी उसे काटने लगी। दो महीने बीत गए, न कोई ख़त आया, न पैग़ाम।
आख़िरकार अली ने हिम्मत की और एक ख़त लिखा, “ज़ैनब, तुम्हारी नाराज़गी जायज़ है। मैं जानता हूँ कि मेरे मज़ाक ने तुम्हें दुख दिया। लेकिन अब मैं सब कुछ तुम्हारे सामने कहना चाहता हूँ। मैं आ रहा हूँ, तुम्हारी सारी शिकायतें दूर करूँगा। तुम भी वक़्त की नज़ाकत को समझोगी। हकीकत क्या है, मैं तुम्हें बताऊँगा। ज़ैनब, मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे लेने एयरपोर्ट पर ज़रूर आओ। — अली” ये ख़त भेजने के बाद अली ने अपनी फ्लाइट की टिकट बुक की। कश्मीर की ठंडी हवाओं और बर्फ़ से ढके पहाड़ों को पीछे छोड़कर, वह दिल में उम्मीद और डर लिए भोपाल की फ्लाइट में सवार हो गया। एयरपोर्ट पर कदम रखते ही अली के दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। बेचैनी में उसकी निगाहें हर चेहरे को तलाश रही थीं। अचानक एक काली कार एयरपोर्ट के बाहर रुकी। ड्राइवर ने उतरकर पिछला दरवाज़ा खोला। अली की साँसें थम गईं—कार से ज़ैनब उतरी। नीली शॉल में लिपटी, आँखों में पुरानी उदासी और चेहरे पर एक अनजानी मुस्कान लिए, अली की तरफ़ बढ़ रही थी। कुछ पल दोनों चुप रहे। फिर ज़ैनब ने धीरे से कहा, “अली, तुम्हारे ख़त ने मुझे बहुत रुलाया, मगर शायद मोहब्बत में थोड़ी तकलीफ़ भी ज़रूरी है। आओ, घर चलें। अब बहुत बातें करनी हैं…”
अली के चेहरे पर रौशनी सी फैल गई। उसने ज़ैनब की तरफ़ हाथ बढ़ाया, और दोनों एक नई उम्मीद के साथ कार की ओर बढ़ गए… कार एक खूबसूरत बंगले के सामने रुकी। दरवाज़े पर एक चपरासी ने गेट खोला, गाड़ी अंदर गई। अली के मन में सवालों का तूफ़ान था—ये नई जगह, नए लोग, क्या ज़ैनब को यहाँ नौकरी मिल गई है? तभी एक खुशमिज़ाज नौजवान आगे बढ़ा, मुस्कराते हुए हाथ मिलाया और बोला: “हैलो!” ज़ैनब ने फौरन कहा, “अली, ये मेरे पति, अहमद हैं। यहाँ के नए डिप्टी कलेक्टर। हमने हाल ही में लव मैरिज की है। माफ़ करना, सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि तुम्हें बता भी न सकी।”
अली के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसे लगा जैसे पूरा जहां अचानक खाली हो गया हो। मगर उसने खुद को संभाल लिया। ज़ैनब की आवाज़ अब दूर से आती महसूस हो रही थी। “अली, तुम्हारा शुक्रिया कि तुम हमारे घर आए, मेरी खुशियों में शामिल होने…” अली ने मुश्किल से मुस्कान ओढ़ ली, दिल के ज़ख्म छुपाते हुए अहमद को मुबारकबाद दी, और ज़ैनब को एक आख़िरी बार देखा। उस नज़र में हज़ारों कहानियाँ, अनकहे वादे, और अधूरे सपने थे। ज़ैनब ने हल्की सी मुस्कान के साथ पूछा, “आप अकेले आए हैं? अपनी पत्नी (शरीके हयात) को साथ नहीं लाए?” अली के पास कोई जवाब न था। वह चुपचाप बैठा रहा। दिल में जो तूफ़ान था, वह आँखों में नमी बनकर रह गया। इसी बीच एक नौकर चाय-नाश्ते की ट्रे लेकर आया। अली ने मुश्किल से खुद को संभाला, ज़ैनब और अहमद के बीच खामोश बैठा रहा। चाय की भाप में अली को अपनी पुरानी यादें, कॉलेज के दिन, ख़तों की खुशबू और ज़ैनब की मुस्कान दिखने लगी।
ज़ैनब ने औपचारिक मुस्कान के साथ कहा, “अली, कुछ लोग हमारी ज़िंदगी में बस एक खूबसूरत याद बनकर रह जाते हैं। शायद तुम भी…” अली ने चाय का कप हाथ में लिया, मगर उसके हाथ काँप रहे थे। उसने नज़र उठाकर ज़ैनब को देखा—आँखों में अधूरी मोहब्बत, होंठों पर ज़बरदस्ती की मुस्कान थी। अहमद ने बात बदलने की कोशिश की, “अली साहब, ज़ैनब ने बताया था आप अभी कश्मीर में पढ़ रहे हैं। कश्मीर कैसा है आजकल? कुछ तब्दीली आई है क्या कश्मीर के दिल में? मेरा मतलब, कैसी फिजा है अब कश्मीर की?” अली ने धीरे से जवाब दिया, “कश्मीर तो अब भी वैसा ही है, बस कुछ ख़्वाब बर्फ़ में दफन हो गए…” कमरे में एक पल के लिए ख़ामोशी छा गई। चाय की प्याली में अधूरे ख़्वाबों की तल्ख़ी घुल गई। अली ने रुख़्सत चाही। अहमद ने नौकर से कहा, “अली साहब को छोड़ आओ।” अली ने बेदिली से हाथ हिलाया और गाड़ी में बैठ गया। कार की खिड़की से उसे बंगले के पेड़, ज़ैनब की परछाईं और अपनी अधूरी मोहब्बत दूर होती दिखी। गाड़ी आगे बढ़ गई, पीछे सिर्फ़ ख़ामोशी और अधूरे ख़्वाब रह गए…
अली के दिल में एक सवाल उठ रहा था—क्या ज़ैनब ने अपनी नई ज़िंदगी में उसकी मोहब्बत को कभी याद किया होगा? गाड़ी के सफर में वह चुपचाप बैठा रहा, मगर अधूरे ख़्वाबों की कसक अब भी बाकी थी। “मैं भी कितना बदनसीब था, कि ज़ैनब को बता न सका कि मेरा मजाक मेरी तबाही का सबब बन गया, और अब बताने से भी क्या हासिल था।”
— डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह ‘सहज़’