नयन स्वयं का दर्पण बनें
अब नहीं चाहती मैं
तारों से सजी प्रशंसा,
न लहरों की वंदना,
न बाहरी स्वर का मधुर झूठ।
मुझे तो चाहिए —
वो मौन स्वर
जो अंतर की गहराइयों में
मेरी ही छाया बनकर
मुझे ही समझे।
कितनी बार
दूसरों की नज़रों में
खुद को पढ़ती रही मैं,
और हर बार
छूटा कुछ —
अपना, कोमल, अमूर्त।
अब जब लौटकर
अपने ही नयनों में
झाँका है मैंने,
तो देखा —
एक निर्जन पुलिन पर बैठी
मैं स्वयं को पुकार रही हूँ।
दुनिया की वाणी
अब केवल एक गूँज है,
जिसमें अर्थ नहीं —
केवल आदत है
सुनते रहने की।
अब
जो भी सत्य है,
वो मेरी दृष्टि है,
जो भी सुंदर है,
वो मेरा अंतर।
अब स्वयं की नज़रों में
सजना है मुझे,
बिना किसी बाहरी पुष्पवर्षा के —
केवल आत्मगंध से।
— प्रियंका सौरभ