कविता

कुत्ते को राजा, इंसान को भिखारी

कुत्ते को गाड़ी में बैठा दिया,
बापू को धूप में छोड़ दिया।
पंखा चला कुत्ते की खातिर,
माँ को पसीने में तोड़ दिया।

कुर्सी पर बैठा पालतू राजा,
घर में इंसान बने मज़दूर।
बिल्ली के दूध में बादाम,
बच्चे को रोटी अधपकी भरपूर।

वो इंसान जो बोल न पाए,
प्यारा लगे, दिल छू जाए।
जो अधिकार मांगे, सच बोले,
वो बुरा लगे, दूरी बनाए।

तोते से कहते हैं “जानू”,
बेटे को सुनाते हैं ताने।
पक्षियों को देते हैं प्रेमपत्र,
बीवी की चिट्ठी फाड़ बहाने।

“स्नानगृह” बना है कुत्ते का,
दवा नहीं है दादी के पास।
बर्थडे केक है बिल्लियों का,
भूखा बच्चा देखे उदास।

करुणा अब कपड़ों की है,
जो बोल न सके, उसी पर हो।
जो जवाब दे दे, स्वाभिमानी,
वो घर से बाहर, उसके लिए रो?

हर गली में डॉग शो चलता,
हर मोहल्ले में पंछी महोत्सव।
इंसानों का मेला उजड़ रहा,
ये नया ‘सभ्यता-उत्सव’।

करुणा हो सब जीवों के लिए,
यह हम भी मानें बारम्बार।
पर इंसान से नफरत कर के,
पशु-प्रेम का क्या सत्कार?

माँ की दवा, बाप का चश्मा,
बच्चे की कापी, भूखे की थाली —
इनसे बड़ा हो जाए अगर
कुत्ते का स्वेटर, तो हाय! बेहाली!

अब पोस्टर लगे हैं दीवारों पर —
“कुत्ते को मत सताना जी!”
और चौराहे पर आदमी भूखा,
“रोटी दो!” — चुप है दुनिया जी।

रिश्ते टूटे, संवाद बिछुड़े,
आँगन में अब चुप्पी है।
कुत्ते की दुम में घंटी बँधे,
घर-घर में यह नई विपत्ति है।

— प्रियंका सौरभ

*प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh