धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

श्राद्ध में ठहरा समाज, सत्ता में चलता व्यापार

धर्म क्या है? यह सवाल जितना सरल लगता है, उतना ही पेचीदा है। पंडित बताएगा—”धर्म वही है जो शास्त्रों में लिखा है।” संत कहेगा—”धर्म वही है जो मन को शुद्ध करे।” नेता कहेगा—”धर्म वही है जो वोट दिला दे।” और आम आदमी कहेगा—”धर्म वही है जो हमें रोकता है, डराता है और कभी-कभी चपत भी लगाता है।”

श्राद्ध पक्ष में यही धर्म सबसे ज़्यादा सक्रिय हो जाता है। पितरों का समय है, यानी वह अवधि जब पुरखे धरती पर आते हैं और हमसे अपेक्षा करते हैं कि हम उन्हें याद करें, तर्पण करें और दान-पुण्य करें। इस दौरान शादी-ब्याह, गृहप्रवेश, नया व्यापार या कोई नया शुभ काम करने की मनाही है। समाज मानता है कि यह ‘अशुभ काल’ है। यानी पूरा समाज ‘रोक मोड’ में चला जाता है।

लेकिन राजनीति का समाज कभी रुकता नहीं। वहाँ श्राद्ध पक्ष में भी रैलियाँ होती हैं, फूल-मालाओं का आदान-प्रदान होता है, उद्घाटन होते हैं, माइक गरजते हैं और नेता जनता के सिर पर आशीर्वाद बरसाते हैं। कोई कहे—”श्राद्ध में तो सब ठहर जाता है,” तो राजनीति ठहाके मारकर कहती है—”हमारे लिए हर दिन शुभ है, क्योंकि सत्ता ही सबसे बड़ा धर्म है।”

धर्म का असली मर्म है—सत्य, करुणा, न्याय और कर्तव्य। लेकिन आज यह रस्मों के बोझ तले दबकर रह गया है। राजनीति ने धर्म को अपनी चाकरी में लगा लिया है। धर्म कहता है—”श्राद्ध में दिखावा मत करो, स्मरण करो।” राजनीति कहती है—”श्राद्ध में भी माइक बजाओ, मंच सजाओ, वोट जुटाओ।” आम आदमी अपने पिता-दादा की आत्मा को तर्पण करने के लिए पानी में काले तिल डालता है। और नेता जनता की आत्मा को तर्पण करने के लिए मंच से झूठे वादे उछालता है। फर्क बस इतना है कि एक में चुप्पी है, दूसरे में शोर।

सूतक का नियम भी दिलचस्प है। किसी के घर मृत्यु हो जाए तो तेरह दिन तक ‘अशुद्धि’ मानी जाती है। इस दौरान परिवार सामाजिक आयोजनों से दूर रहता है। यही नियम आम आदमी पर लोहे की तरह लागू है। लेकिन जब सत्ता की गाड़ी दौड़ती है, तो सूतक के सारे नियम ब्रेक की तरह फेल हो जाते हैं। नेता सूतक में भी शपथ ले लेता है, चुनाव लड़ लेता है, मंच पर मालाएँ पहन लेता है। क्यों? क्योंकि जनता का सूतक कभी ख़त्म नहीं होता और नेताओं का सूतक कभी शुरू ही नहीं होता।

धर्म और परंपरा के नाम पर ग़रीब आदमी को रोका जाता है। “बेटा, श्राद्ध पक्ष में शादी मत करना।” “गृहप्रवेश रोक लो, वरना अशुभ होगा।” “नया व्यापार मत खोलो, पितृ नाराज़ होंगे।” पर उसी समय नेता उद्घाटन कर रहा होता है—चुनावी कार्यालय का, जनसभा पंडाल का, सड़क या पुल का। क्या पितर सिर्फ़ आम आदमी के घर ही आते हैं? क्या उन्हें राजनेताओं के मंच पर आने से डर लगता है? या फिर पितरों ने भी मान लिया है कि वहाँ जाने से कोई फ़ायदा नहीं, क्योंकि नेताओं का मन पहले से ही ‘पापमोचन’ मोड में है।

श्राद्ध का असली भाव था—पूर्वजों का स्मरण, मृत्यु का बोध और जीवन की नश्वरता को समझना। लेकिन इसे डर और दिखावे की परंपरा में बदल दिया गया। ब्राह्मण बुलाओ, दान करो, खाना खिलाओ, तभी पितर तृप्त होंगे। यानी धर्म एक सेवा से अधिक ‘लेन-देन’ बन गया। नेताओं ने इसे और आगे बढ़ाया—धर्म को सौदेबाज़ी बना दिया। एक वोट दो, बदले में धर्म रक्षा का ठेका हम लेंगे।

अगर सच कहा जाए तो असली श्राद्ध तो राजनीति कर रही है—सच का, नैतिकता का और जनसेवा का। जनता उम्मीद की माला पहनाती है, नेता उसे झूठ की माला लौटा देता है। जनता पसीने से पितरों को याद करती है, नेता पसीने से भी वोट की गिनती करता है। जनता श्राद्ध में शांति चाहती है, नेता श्राद्ध में भी शोर मचाता है। यह कैसी विडंबना है कि समाज अपने पुरखों के लिए श्राद्ध करता है, और नेता जनता के वर्तमान का ही श्राद्ध कर देता है।

धर्म का बोझ हमेशा कमज़ोर कंधों पर क्यों डाला जाता है? ग़रीब को कहा जाता है कि अगर उसने श्राद्ध पक्ष में विवाह किया तो पितर नाराज़ हो जाएँगे। मध्यम वर्ग को कहा जाता है कि गृहप्रवेश टालो, वरना जीवनभर अशांति रहेगी। लेकिन अमीर और शक्तिशाली आराम से होटल का उद्घाटन करते हैं, क्रिकेट लीग शुरू करते हैं, और नेता वोटों का महोत्सव मनाते हैं। धर्म किसके लिए है? समाज को नियंत्रित करने के लिए या सत्ता को वैधता देने के लिए?

पितर अगर सच में धरती पर आते होंगे तो उन्हें सबसे ज़्यादा हंसी अपने वंशज नेताओं पर आती होगी। सोचिए, वे देख रहे होंगे कि उनके घर की संतान जनता से कह रही है—”श्राद्ध में मत नाचो-गाओ,” और खुद मंच पर डीजे की धुन पर कूद रही है। शायद पितर भी सोचते होंगे—”हमारे श्राद्ध की चिंता छोड़ो, पहले इस राजनीति के पाखंड का श्राद्ध करो।”

धर्म की असली ताक़त आत्मा को झकझोरने में थी, पर इसे रस्मों का कैदी बना दिया गया। श्राद्ध हमें मृत्यु का बोध कराता था, पर राजनीति ने इसे भी अवसर बना लिया। आज आम आदमी पितरों के लिए जल तर्पण करता है, और नेता जनता के भरोसे का तर्पण करता है। फर्क बस इतना है कि पहले वाला श्रद्धा से करता है, दूसरा सत्ता से। धर्म अगर सच में जीना है तो इसे पाखंड और दिखावे से मुक्त करना होगा। वरना हर साल पितृ पक्ष में तो पूर्वज आएँगे ही, लेकिन सत्ता पक्ष रोज़ ही हमारे वर्तमान का श्राद्ध करता रहेगा।

— प्रियंका सौरभ

*प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh