लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ कोई गीत
तमाम उम्र यही सिलसिला होता रहा
मैंने जो माँगा हर उस चीज़ को खोता रहा
मेरे अरमान थे कुछ ख़्वाब थोड़ी ख़्वाहिशें
एक-एक कर उन्हीं का जनाज़ा ढोता रहा
नई सुबह में नये से मैं इरादे लेकर
ख़्वाब रोज़ाना नये आँखों में बोता रहा
चंद यादें जो मुझे दिल-अज़ीज थीं यारों
किसी गौहर ओ नगीने सा संजोता रहा
उस हसीं की रुबाइयों सी निगाहों पे सनम
लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ कोई “गीत” पिरोता रहा
— प्रियंका अग्निहोत्री “गीत”
