ग़ज़ल
ख़ुदाई काम से ख़ंजर अलग कर
किसी तन से न कोई सर अलग कर
सही वो न्याय जो क़ानून-सम्मत
हमारी माँग, बुलडोजर अलग कर
बिना इसके न होती प्रीति मत कह
ग़लत इस धारणा से डर अलग कर
न जाती जाति अपने दरमियां से
रखा है आज तक अंतर अलग कर
मिला देता सभी को एक में तू
मगर बदतर अलग बेहतर अलग कर
निकल आए परी नीलम शिला से
मगर अतिरिक्त जब पत्थर अलग कर
अढ़ाई अक्षरों का लफ़्ज़ सौंपा
न दे आघात हर अक्षर अलग कर
— केशव शरण
