धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

धनतेरस

भारत त्योहारों का देश है। ऋतु परिवर्तन हो अथवा फसलों का आगमन, उत्सवधर्मी भारतीय सामूहिक चेतना के साथ कुछ न कुछ अवसर तलाश ही लेते हैं। भारतीय संस्कृति में प्रकृति का सर्वाधिक योगदान माना गया है। हमारे ऋषि मुनि जो प्राचीन काल के वैज्ञानिक थे, गहन अध्ययन व चिंतन के बाद मनुष्यों के उपकार हित अनेकों औषधियों व उनके उपयोग जीवन शैली खान पान व जीवन पद्धति का निरूपण किया।
दीपावली महापर्व से पहले मनाया जाने वाला धनतेरस यानी धन्वन्तरी त्रयोदशी पर्व भी ऐसे ही महान भगवान धन्वंतरि जी के प्राकट्य का दिन है। पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन के समय अमृत कलश धारण किये भगवान धन्वन्तरी प्रकट हुए थे। भगवान धन्वन्तरी ही आयुर्वेद के जनक कहे जाते हैं और यह ही देवताओं के वैध भी माने जाते हैं। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी उन्हीं भगवान धन्वन्तरी का जन्म दिवस है जिसे बोलचाल की भाषा में धनतेरस कहते हैं। सभी सनातन धर्म के अनुयायी भगवान धन्वन्तरी जी के प्रति इस दिन आभार प्रकट करते हैं। भगवान धन्वन्तरी का गूढ वाक्य आज भी आयुर्वेद में प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है…..

“यस्य देशस्य यो जन्तुस्तज्जम तस्यौषधं हितं।”

अर्थात जो प्राणी जिस देश व परिवेश में उत्पन्न हुआ है उस देश कि भूमि व जलवायु में पैदा जड़ी-बूटियों से निर्मित औषध ही उसके लिए लाभकारी होंगी।

इस गूढ़ रहस्य को हमारे मनीषियों ने समझा और उसी के संकल्प का दिन है ‘धनतेरस’। यह अलग बात है कि अनेक कारणों से वर्तमान में आयुर्वेद का प्रचार- प्रसार धीमा पड़ गया है। इस धनतेरस पर हम संकल्प लें कि भगवान धन्वन्तरी जी द्वारा स्थापित आयुर्वेद चिकित्सा का यथा संभव प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण कर सुखी, समृद्ध राष्ट्र का निर्माण करें। आज ही के दिन प्रदोष काल में यम के लिए दीप दान एवं नैवेध अर्पण करने का प्रावधान है। कहा जाता है कि ऐसा करने से अकाल मृत्यु से रक्षा होती है। मानव जीवन को अकाल मृत्यु से बचाने के लिए दो वस्तुएं ही आवश्यक हैं …

प्रकाश = ज्ञान तथा नैवेध = समुचित खुराक। यदि यह दोनों वस्तुएं प्रचुर मात्र में दान दी जाएँ तो निश्चय ही देशवासी अकाल मृत्यु से बचे रहेंगे।

धनतेरस या धन त्रयोदशी मनाने का एक और किंवदंती भी प्रचलित है – एक राजा हिमा के पुत्र को एक ज्योतिषी ने बताया था कि विवाह के चौथे दिन सांप के काटने से उसकी मृत्यु हो जाएगी,
राजकुमार की नवविवाहिता पत्नी ने मृत्यु के देवता यमराज से बचने के लिए कमरे के प्रवेश द्वार पर सोने- चाँदी के गहनों के मध्य दीपक जला दिए, जिससे यमराज की आँखें चौंधियां गईं और वे राजकुमार तक पहुँचने में नाकाम रहे।
इस घटना के बाद से, यमराज के भय से मुक्ति पाने और परिवार की लंबी उम्र के लिए धनतेरस की शाम को घर के बाहर यम दीपदान करने की परंपरा शुरू हुई।

इन कहानियों के कारण ही धनतेरस पर बर्तन, सोना, चांदी और अन्य शुभ वस्तुएँ खरीदने की परंपरा है, ताकि घर में धन, समृद्धि और स्वास्थ्य का वास हो।
आज के दिन बाज़ार से झाड़ू ख़रीदने का भी विधान बनाया गया है। हमें लगता है कि सनातनी पूर्वजों द्वारा समाज के प्रत्येक वर्ग की जीविका का ध्यान रखा। तभी तो पर्व त्योहारों पर सबको रोज़गार व उत्सव में शामिल होने का अवसर प्रदान करने के लिये विभिन्न उपाय किये। दीपोत्सव पर समाज के प्रत्येक वर्ग के उत्पादों को उत्सवों में अनिवार्यता प्रदान की गयी।

— डॉ अ कीर्तिवर्धन