नानी और दादी की कहानियों में तजुर्बे का शहद था
ज़माना बदल गया है, लेकिन दिल के किसी कोने में दादा-दादी और नाना-नानी का वो आँगन, वो पुरानी चौखट, आज भी वैसे ही महकती है जैसे कभी दोपहर की धूप में नीम की छाँव में बच्चों की किलकारियाँ, दादी के लबों से फ़िसलती कहानियों का जादू, नाना की गोदी में छुपकर सुनी लोरियों का सुकून और रसोई से आती देसी घी के परांठों की ख़ुशबू, लेकिन क्या हमने सच में उस दुनिया को खो दिया है या हमारे भीतर उसकी कोई परछाईं अब भी बाक़ी है, हम शहरों की रफ़्तार में बहुत आगे बढ़ गए हैं मगर जब-जब गर्मियों की छुट्टियाँ आती हैं तो दिल का कोई कोना फ़िर उन्हीं पलों की तलाश में उन गाँव की गलियों, मिट्टी की सोंधी महक, आँगन की चौपाल और तुलसी के पौधों तक लौट जाता है जहाँ समय की रफ़्तार सुस्त पड़ जाती थी और रिश्तों की गर्माहट तेज़ हो जाती थी, वो कहानियाँ महज़ कल्पना नहीं थीं, संस्कारों की सीढ़ियाँ थीं, दादी के अल्फ़ाज़ में तजुर्बे का शहद था, नाना की नज़र में मोहब्बत की छाँव, वो थपकियाँ जिनमें नींद उतरती थी और वो दुआएँ जिनमें हर रुसवाई और परेशानियों का हल था, अब नए दौर में हमारे पास तरक़्क़ी है, मोबाइल स्क्रीन पर चमकती दुनिया है मगर उसमें पहचान की वो गहराई, अपनायत की वह सच्चाई और पुरखों की बसी हुई मोहब्बत का जादू नहीं, बच्चों के पास आज खिलौने हैं, गेम्स हैं, मगर वो मिट्टी नहीं जिसमें पेड़ से आम तोड़कर खाना या नानी के साथ कुएं से पानी भरना, अब घरों में ए सी हैं मगर कभी वो ठंडी हवाएँ जो चौखट पर बैठकर मिलती थीं, अब कहाँ से आएँ, क्या नई पीढ़ी जानती है कि तिरछी धूप में भागते हुए मैदान की कोई क्रिकेट की पिच, शाम को चौपाल पर बुजुर्गों के हाथों की बनी बीनुरी, नानी के तेल वाले बाल और दादी की आग़ोश, ये सब हमारी संस्कृति की जान थे, वो रिश्ता जो ज़िंदा रखता था घर की दीवारों को, संस्कार जिनमें तहज़ीब की बुनियाद थी, शायद अब वक्त है कि हम फ़िर से लौटें, अपने बच्चों को उन पुरानी कहानियों से मिलाएँ जिनमें खुद्दारी भी है, मोहब्बत भी और वफ़ादारी भी, आज जब रिश्ते मोबाइल की घंटियों में बँध कर रह गए हैं, उस वक्त हम सबको घर के बुज़ुर्गों से, उनकी नज़रों से, उनकी दुआओं से फ़िर से जुड़ जाना चाहिए ताकि अगली नस्ल केवल तरक़्क़ी ही नहीं, तहज़ीब और संस्कार भी सीखे, क्योंकि असल हिंदुस्तान तो उन बुज़ुर्गों की झुर्रियों, दादी के तरन्नुम और नाना-नानी के अल्फ़ाज़ में ही बसता है, वही हमारे वज़ूद की पहचान है, और वही वो कहानी है जो हर पीढ़ी को फ़िर से सुनाई जानी चाहिए।
— डॉ मुश्ताक़ अहमद शाह सहज़
