ग़ज़ल
आज ज़ख़्मी हो यही तो ज़िन्दगानी रह गई।
की मुहब्बत तो किसी की बन दिवानी रह गई।।
अक्स देखा सामने तो ख़्याल आते ही गये।
चाँद – सी सूरत दिखी चिलमन उठानी रह गई।।
ख़ुशबू ले घूमती थी तब हवा मस्ती भरी।
संग उड़ती ही चुनरिया देख धानी रह गई।।
देख कोई अक्ल से ही तो बड़ा होता नहीं।
दी नसीहत जो रुकी है खानदानी रह गई।।
बदगुमां होते हुये पाताल में धँसते गये।
देखते संस्कार खोये जान जानी रह गई।।
संग चलते ही गये थे वादियों में खो गये।
साथ खोया इस तरह बस याद आनी रह गई।।
भेदभावों ने किया ज़ुल्मो- सितम ऐसा सुनो।
देखते दीवार तब ही तो ढहानी रह गई।।
लकीरों के फकीरों की बढ़ सके कब ज़िंदगी।
क़ैद में हो बंद ही अब तो रवानी रह गई।।
गुनगुनाती है शफ़क पर शब सुहानी ही हुई।।
इक ग़ज़ल कहने लगी लेकिन कहानी रह गई।
शबनमी-सी भीगती कलियाँ रूहानी ही लगें।
जुगनुओं की क़िस्मतों में रात-रानी रह गई।।
तुम बुज़ुर्गों की सदा बातें बताते ही रहो।
मत कहो शिक्षा मिली अटकी जवानी रह गई।।
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’
