ग़ज़ल
दिल की हसरत दिल में मारी जा रही है।
ज़िन्दगी जैसे कि हारी जा रही है।
बेज़मीरी हर तरफ़ फैली है यारो,
शक़्ल से भी आब-दारी जा रही है।
बढ़ रही है दिन-ब-दिन ग़ुरबत जहाँ में,
रफ़्ता रफ़्ता रोज़गारी जा रही है।
अपनी सीरत क्यों नहीं दिखती किसी को,
क्यों फ़क़त सूरत सँवारी जा रही है।
ज़िन्दगी को ख़ुद गिला है ज़िन्दगी से,
बद से बद तर क्यों गुज़ारी जा रही है।
बंदगी में जैसे डूबा जा रहा हूँ,
मेरे दिल की बेक़रारी जा रही है।
देखता कोई नहीं है मेरी मेहनत,
सुर्ख-रूई बस निहारी जा रही है।
नीत कैसे चल पड़ा दौर ए बुराई,
जग से अच्छाई नकारी जा रही है।
— हेमंत सिंह कुशवाह
