बूंदों में दफ़्न सपनें
बूंद-बूंद बरस के ज़हर रस क्यों घोल हे,
आई विपदा तो रोकर किसान बोल रह।
ओ ज़ालिम बादल, तरसे तो बरसे नहीं,
सूखी फसलें भी भीगकर डूबीं हैं कहीं।
अन्नदाता की आँखों से नींद है रूठ गई,
मेहनत की पूँजी खेतों से भी लुट ई।
जब बीज बोया, सूख गया था कंठ,
अब बाढ़ आई, डुबो गया भाग्य का ग्रथ।
मिट्टी की खुशबू में रोटी की आस थी,
पर मेघ गरजे ऐसे,छिन गई साँस थी
धरती और गगन से अब टूटा विश्वास,
उजड़ा आशियाना, मिट गया हर प्रकाश
कर्ज़ का बोझ, और ऊपर से जल-प्रकोप,
कहाँ जाए किसान, कहाँ खोजें कोई झोंप
फिर भी वो कहता,एक दिन सवेरा आएगा,
मेरे खेतों में फिर ज़ब,अन्न उग आएगा।।
— सोमेश देवांगन
