कविता

बोझ उठाए कंधे

महामानवों के सबसे प्यारे लोग,
नहीं कर पा रहे अपने अधिकारों का बोध,
हां यह जरूर याद है कि
अपना कर्तव्य करते जाएंगे,
मस्तिष्क को बोझ नहीं थमायेंगे,
वे सारे कर्तव्य जो
नहीं है निर्धारित कुदरत द्वारा,
जो निर्धारित है कुछ घाघ,चालक के
निजी स्वार्थी हरकत द्वारा,
चले जा रहे सब अपने लक्ष्यहीन राह पर
भेड़ों की कदमताल मिलाते फौज,
जिन्हें याद है कि कैसे करना है सेवा,
भुलाकर अपनी हंसी,ठिठोली,मस्ती,मौज,
गा रहे किसी के बनाए गीत,
उनके ही बनाए धुन पर,
कभी हंस,कभी मुस्कुरा और कभी रो रो
उन्मादी नृत्य करते खुश हो दुर्गुण पर,
मगर कुछ सोचने के लिए हुए मजबूर,
और कैसा जीवन संभव है जानने आतुर,
जो आदतन आक्रोशी बनते जा रहे,
खुद और सबको नवनीत विचार सीखा रहे,
अब आ चुका है उसमें विद्रोही तेवर,
दासता स्वीकार नहीं ले नए कलेवर,
लेकिन कुछ अभी भी नाच रहे होकर विधून,
मीठे धधकते अंगारों युक्त राह चलना चुन,
जाग रहे को उठाना पड़ रहा है
अपने कंधे पर बोझ,
और उधर स्वीकार ही नहीं पा रहे राहों में आते
नवसृजित वमानवीय विचारों का अवरोध।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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