गीतिका/ग़ज़ल

कंक्रीटों के जंगल

  इन कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना जमीं भी हो गगन भी हो ऐसा घर बनाते हैं ना ही रोशनी आये ना खुशबु ही बिखर पाये हालात देखकर घर की पक्षी भी लजाते हैं दीवारेँ ही दीवारें नजर आये घरों में क्यों पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं […]

गीतिका/ग़ज़ल

माँ का एक सा चेहरा

बदलते वक्त में मुझको दिखे बदले हुए चेहरे माँ का एक सा चेहरा , मेरे मन में पसर जाता नहीं देखा खुदा को है ना ईश्वर से मिला मैं हुँ मुझे माँ के ही चेहरे मेँ खुदा यारो नजर आता मुश्किल से निकल आता, करता याद जब माँ को माँ कितनी दूर हो फ़िर भी, […]

गीतिका/ग़ज़ल

कितने मुसाफिर हैं यहाँ, वीरान बस्ती में

आज सब कुछ जैसे बदलता जा रहा है, आदमी आदमी का दुश्मन बन बैठा है. हर एक दूसरे को गिराकर अपने को मुकाम पर देखना चाहता है, अरे अगर कोई मुकाम हासिल करना है तो अपने दम पर करो दूसरे को गिराकर ही क्यों? आज जब कुछ लिखने बैठा तो सब कुछ वीराना सा लगा. […]

गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : बजती नहीं कोई झंकार जाते जाते

बजती नहीं कोई झंकार जाते जातेटूटते हैं दिल के अब तार जाते जातेवक़्त ए रुखसती हो चली अब तो यूँ बस हो जाता तेरा दीदार जाते जातेपिंजरे से पंछी पल भर में उड़ने को तैयारटूटती हैं साँसे होता न इंतज़ार जाते जातेसज़ जाती हिना गर महबूब के नाम की शमा पा लेती परवाने का प्यार जाते […]

गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : क़यामत होने को है

दिल से दर्द रुखसत होने को है हमें ग़मों से फुर्सत होने को है दुश्मनों के खेमे में दोस्ती के चर्चे कुछ जीने की मोहलत होने को है परतें  उठने लगीं जो हर किरदार से रुबरू जिंदगी से हकीकत होने को है इज़हार ए प्यार लबों की ख़ामोशी में  आज नज़रों की बदौलत होने को है हुए उनके दिल ए जागीर […]

गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : दिलों को मिला देती है

Rajiv Chaturvedi जी दादा का एक शेर पढ़ा और पढ़कर बहुत अच्छा लगा और शब्द उतरते चले गये“जिन हवाओं को हक़ नहीं मिलता है यहाँ ,आँधियाँ बन कर दरख्तों को हिला देती हैं .” —- राजीव चतुर्वेदीजलाती हैं तेज धूप में अंगारों पर चलाती हैं ,जख्म दर जख्म ये हमें कैसा सिला देती हैं .अंधेरों में […]

गीतिका/ग़ज़ल

दिल्लगी करते रहे

यूँ मुसलसल ज़िन्दगी से मसख़री करते रहे ज़िन्दगी भर आरज़ू-ए-ज़िन्दगी करते रहे एक मुद्दत से हक़ीक़त में नहीं आये यहाँ ख्वाब कि गलियों में जो आवारगी करते रहे बड़बड़ाना अक्स अपना आईने में देखकर इस तरह ज़ाहिर वो अपनी बेबसी करते रहे रोकने कि कोशिशें तो खूब कि पलकों ने पर इश्क़ में पागल थे […]

गीतिका/ग़ज़ल

गाँव से एक दिन शहर को

सागर की लहरों पर कदम बिछाकर आये थे हम यूँ गाँव से एक दिन शहर को आये थे बहुत छोटी सी एक थाली थी किनारों वाली अपनी आरजु के सारे महताब भर आये थे तुलसी की महक वो सूरजमुखी को अपनी ओर मुड़ते देखना बागबान जितने भी मिले शहर में बस काँटों के गुल बैचने […]

गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल (सपने खूब मचलते देखे)

सपनीली दुनियाँ मेँ यारो सपने खूब मचलते देखे रंग बदलती दूनियाँ देखी, खुद को रंग बदलते देखा सुविधाभोगी को तो मैंने एक जगह पर जमते देख़ा भूखों और गरीबोँ को तो दर दर मैंने चलते देखा देखा हर मौसम में मैंने अपने बच्चों को कठिनाई में मैंने टॉमी डॉगी शेरू को, खाते देखा, पलते देखा […]