कविता – ठहरा प्रवाह
आधुनिक युग में
नदियाँ भी आ गयी हैं सीमाओं की चपेट में
जरुरतमन्दों ने क्यूँ कर रोक दिया है प्रवाह नदी का
प्रकृति के विरुद्ध झेलती अत्याचार
ये नदियाँ सूखकर
इतिहास के पन्नों पर दर्ज करवाती
रही हैं मशीनी मानव का अंधकारमयी भविष्य
एक दिन इन्हीं के सूखे किनारे बैठ
हम तलाश करेंगे एक चारागाह
जो हममें लहु का प्रवाह रोक दे
कुछ कवि भी होंगे
किनारे पर जो लिख रहे होंगे
अपने समय का
बिखरे प्रवाह का संयोजन ।।
रुचिर अक्षर ®
बहुत सुन्दर भाव !