गाँव से एक दिन शहर को
सागर की लहरों पर कदम बिछाकर आये थे
हम यूँ गाँव से एक दिन शहर को आये थे
बहुत छोटी सी एक थाली थी किनारों वाली
अपनी आरजु के सारे महताब भर आये थे
तुलसी की महक वो सूरजमुखी को अपनी ओर मुड़ते देखना
बागबान जितने भी मिले शहर में बस काँटों के गुल बैचने आये थे
मिट्टी वाले चबुतरे पर हर कोई सुरज से वक्त पुछने आता था
शहर में भली पक्की है इमारते पर मिलने जो भी आये सब बेमन ही आये थे
नदी नालो का सावन में वो भर भर जाना क्या खुब नजारा था
शहर के नल में बस पानी में तहलील हो नमक के ढेर ही आये थे
ओ खुदा के बंदे ओ शहरी बाशिंदे ‘ रुचिर ‘
शहर बैठे दीवान लिखते रहे लौटकर भला गाँव को क्यों नही आये थे
बढ़िया !