कविता

पिता का संघर्ष

वो टूटता भी है कई भावों में
बड़ा होना अधिकार था घर में
घर का भी अधिकार बड़ा था उस पर
दूसरी ओर विवशता
बड़े का बड़ा होना भी
कर्ज का बोझ भी
बड़े होने का बड़ा ही होता है
स्ट्रीट लाइट जहाँ गाँव भर को
रोशन कर बड़े होने का दर्जा देती
पूरी पंचायत भर में
वो बड़ा बनने का ख्वाब पाले
बड़ी बड़ी किताबों के बड़े सिद्धांतों से
उलझा रहा अथक प्रयास के साथ
बड़े हो जाने तक उन्हीं के नीचे
एक शुभ दिन सरकारी चिठ्ठी की आमद
वो दिन भी बहुत बड़ा निकला
घर मोहल्ले में सुनाई देता रहा दिनभर
वो अब और भी बड़ा हो गया है
लगभग हर आदमी एक दूसरे से कहता रहा
नौकरी ने उसके हाथ चूमे है खुद आये है
सरकार के बड़े बड़े लोग
काजल की खोखल कोठरी के साथ साथ
कोने में बंधी हुई मूक निरीह बकरियां
एकबारगी मिमियाने का सुर जरा लम्बा
अलाप खुशी के गीत गाती
पिता बन जाना फिर से एक बड़ा दर्जा मिला
वैसे अपने सभी अनुजो को पाला उसने
पिता ही की भांति

मैं आजतक कोई संवाद स्थापित नहीं
कर पाया ठीक से अपने पिता से
पिता के जीवन का बड़ा संघर्ष हरबार
स्थगित कर देता है मेरा संवाद
जुबान कटने लगती है मेरी
मेरा वाकिफ है आज भी उन
स्ट्रीट लाइट से कई बार उनकी चटकीली रौशनी में जाकर मै अपनी ही पीठ थपथपाता हूँ
गर्व से भर जाता हूँ
आखिरकार पिता का संघर्ष हर
पुत्र जीवन का संबल होता है
पुत्र का संबल ही पिता का सम्पूर्ण जीवन ।।

रुचिर अक्षर

रुचिर अक्षर. कवि एवं लेखक. निवासी- जयपुर (राजस्थान). मो. 9001785001. अहा ! जिन्दगी मासिक पत्रिका व अन्य पत्रिकाओं में अनेक कविताएँ , गजलें, नज्में प्रकाशित हुईं. वर्तमान समय में 'दैनिक युगपक्ष' अखबार में नियमित लेखन ।

One thought on “पिता का संघर्ष

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया भाव अभिव्यक्ति. जारी रखें.

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