कविता

कविता : असहमति के सोलह साल

विवाह के सोलह साल बाद
सोचती है श्यामली
कभी सहमती नहीं ली गई उसकी
देह उसकी थी देहपति दूसरा…

सहमति नहीं ली गई उसकी
जब पहली बार किन्ही निगाहों ने
बाहर से भीतर तक नाप डाला उसे
उसकी देह के बारे में 
जितना जानते थे शोहदे
उतना तो खुद उसे नहीं पता….

असहमति तोडना पुरुषत्व भरा है
यही जानकर सहमति के बिना
जीती रही है उसके साथ जिसके साथ
बिना सहमति के बाँध दिया गया था उसे
जीवन भर के लिए….

की इसकी ना में हाँ है
यह जुमला जाने कितनी बार सुना
जाने कितनी बार पढ़ा पुरुष की निगाहों में…

कुल तीस साल की उम्र में
पहले चौदह साल पिता की सहमति के थे
बाद के सोलह पति की….

जाने कौन तय करता है सहमतियाँ
जाने क्यूं नहीं पढ़ी जाती असहमतियां
सहमत और असहमत के वाक युद्ध में
वह हमेशा से मौन है
यह जाने बिना की उसके मौन को
हाँ समझा जाएगा….

उसने कहाँ ना….
बोला नखरे दिखाती है साली
उसने कहा हां
बोला चालु है यार…
वह चुप है…वह मानता है सहमति मिल गई…।

माया मृग

एम ए, एम फिल, बी एड. कुछ साल स्‍कूल, कॉलेज मेंं पढ़ाया. कुछ साल अखबारों में नौकरी की. अब प्रकाशन और मु्द्रण के काम में हूं. किताबें जो अब तक छपी हैं- शब्‍द बोलते हैं (कविता 1988), कि जीवन ठहर ना जाए (कविता 1999), जमा हुआ हरापन (कविता 2013), एक चुप्‍पे शख्‍स की डायरी (गद्य कविता 2013), कात रे मन कात (स्‍वतंत्र पंक्तियां 2013). संपर्क पता : बोधि प्रकाशन, एफ 77, करतारपुरा इंडस्‍ट्रीय एरिया, बाइस गोदाम, जयपुर