कविता : कविता चाँद पर
हवाओं से रगड़ खा खा कर
छिल गए कन्धे
हथेलियों पर बादल टिका कभी नहीं टिका
आँखे धूल सने आसमान पर
जहाँ ना कोई नक्षत्र ना आकाशगंगा…
अमावस की रात में
अपना ही हाथ सूझे ना सूझे…
पर कविता अगर चाँद पर लिखनी है तो
चाँद पर ही लिखूंगा….
हवाओं से रगड़ खा खा कर
छिल गए कन्धे
हथेलियों पर बादल टिका कभी नहीं टिका
आँखे धूल सने आसमान पर
जहाँ ना कोई नक्षत्र ना आकाशगंगा…
अमावस की रात में
अपना ही हाथ सूझे ना सूझे…
पर कविता अगर चाँद पर लिखनी है तो
चाँद पर ही लिखूंगा….