कविता

कविता : जो टूट गया

सधे हाथों से 
थाप थाप कर देता है आकार
गढ़ता हैं घड़ा 
गढ़ता हैं तो पकाता हैं
पकाता है तो सजाता है
सज जाता है जो… वह काम आता है…

हर थाप के साथ 
खतरा उठाते हए
थपते हुए , गढ़ते हुए 
रचते हुए , पकाते हुए 
टूट जाता है जो…वह टूट जाता है….

जो काम आया…उसकी कहानी आप जानते है
जो टूट गया , मैं तो उसके लिए लिखता हूँ कविता….।

माया मृग

एम ए, एम फिल, बी एड. कुछ साल स्‍कूल, कॉलेज मेंं पढ़ाया. कुछ साल अखबारों में नौकरी की. अब प्रकाशन और मु्द्रण के काम में हूं. किताबें जो अब तक छपी हैं- शब्‍द बोलते हैं (कविता 1988), कि जीवन ठहर ना जाए (कविता 1999), जमा हुआ हरापन (कविता 2013), एक चुप्‍पे शख्‍स की डायरी (गद्य कविता 2013), कात रे मन कात (स्‍वतंत्र पंक्तियां 2013). संपर्क पता : बोधि प्रकाशन, एफ 77, करतारपुरा इंडस्‍ट्रीय एरिया, बाइस गोदाम, जयपुर

One thought on “कविता : जो टूट गया

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !

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