कविता

कविता : नेकी कर कुएं में डाल

कुआं है , पानी है
गहरा , बहुत गहरा 
गहराई कुएं की नहीं , पानी की है
यह पहली बात है…

पत्थर फेंकते हुए लोग
नहीं जानते 
पानी टूटता नहीं , पानी नहीं जानता
पत्थर का भय
यह दूसरी बात….

तीसरी बात यह कि
जब तक कुआं है 
जबतक पानी है
पत्थर आएँगे यूं ही…

गहराई सब रहस्य सहेजे रहेगी
बस आएगी एक आवाज
वह प्रतिरोध नहीं
स्वीकृति है….
लिजलिजी काई 
तालाबो में होती है…कुए में नहीं…

( नेकी कर कुएं में डाल…कुआं सदियों तक बचाए रखेगा उसे…)

माया मृग

एम ए, एम फिल, बी एड. कुछ साल स्‍कूल, कॉलेज मेंं पढ़ाया. कुछ साल अखबारों में नौकरी की. अब प्रकाशन और मु्द्रण के काम में हूं. किताबें जो अब तक छपी हैं- शब्‍द बोलते हैं (कविता 1988), कि जीवन ठहर ना जाए (कविता 1999), जमा हुआ हरापन (कविता 2013), एक चुप्‍पे शख्‍स की डायरी (गद्य कविता 2013), कात रे मन कात (स्‍वतंत्र पंक्तियां 2013). संपर्क पता : बोधि प्रकाशन, एफ 77, करतारपुरा इंडस्‍ट्रीय एरिया, बाइस गोदाम, जयपुर

One thought on “कविता : नेकी कर कुएं में डाल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह ! वाह !!

Comments are closed.