कितने मुसाफिर हैं यहाँ, वीरान बस्ती में
आज सब कुछ जैसे बदलता जा रहा है, आदमी आदमी का दुश्मन बन बैठा है. हर एक दूसरे को गिराकर अपने को मुकाम पर देखना चाहता है, अरे अगर कोई मुकाम हासिल करना है तो अपने दम पर करो दूसरे को गिराकर ही क्यों? आज जब कुछ लिखने बैठा तो सब कुछ वीराना सा लगा. न जाने क्यों एक ऐसी बस्ती की हालत मेरे सामने आ खड़ी हुई, जहां सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है. जहां हर कोई एक दूसरे से अनजान है… तो लिख बैठा ये कविता, अब आपको सौंप रहा हूँ.
कितने मुसाफिर हैं यहाँ, वीरान बस्ती में
पर सब यहाँ खुद से खफ़ा, वीरान बस्ती में.
हैं जानते सबकुछ मगर अनजान हैं बने
हर शक्स मांगे इक मकां, वीरान बस्ती में.
हैं चढ़ रहे एक दूसरे पर पैर रख रखकर
बेनूर है ये कारवाँ, वीरान बस्ती में.
कितना अकेला है यहाँ हर आम आदमी
घुट घुट के आंसू पी रहा, वीरान बस्ती में
है कर रहा फ़रियाद हाथों को फैलाए
पर है नहीं कोई सगा, वीरान बस्ती में
है आस न पर फिर भी है इंतज़ार कर रह
के होगा इक बदलाव यहाँ, वीरान बस्ती में
-अश्वनी कुमार
अच्छी ग़ज़ल !
धन्यवाद, सर
बहुत शुक्रिया!!!!