गीतिका/ग़ज़ल

कितने मुसाफिर हैं यहाँ, वीरान बस्ती में

आज सब कुछ जैसे बदलता जा रहा है, आदमी आदमी का दुश्मन बन बैठा है. हर एक दूसरे को गिराकर अपने को मुकाम पर देखना चाहता है, अरे अगर कोई मुकाम हासिल करना है तो अपने दम पर करो दूसरे को गिराकर ही क्यों? आज जब कुछ लिखने बैठा तो सब कुछ वीराना सा लगा. न जाने क्यों एक ऐसी बस्ती की हालत मेरे सामने आ खड़ी हुई, जहां सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है. जहां हर कोई एक दूसरे से अनजान है… तो लिख बैठा ये कविता, अब आपको सौंप रहा हूँ.

 

कितने मुसाफिर हैं यहाँ, वीरान बस्ती में

पर सब यहाँ खुद से खफ़ा, वीरान बस्ती में.

 

हैं जानते सबकुछ मगर अनजान हैं बने

हर शक्स मांगे इक मकां, वीरान बस्ती में.

 

हैं चढ़ रहे एक दूसरे पर पैर रख रखकर

बेनूर है ये कारवाँ, वीरान बस्ती में.

 

कितना अकेला है यहाँ हर आम आदमी

घुट घुट के आंसू पी रहा, वीरान बस्ती में

 

है कर रहा फ़रियाद हाथों को फैलाए

पर है नहीं कोई सगा, वीरान बस्ती में

 

है आस न पर फिर भी है इंतज़ार कर रह

के होगा इक बदलाव यहाँ, वीरान बस्ती में     

-अश्वनी कुमार

अश्वनी कुमार

अश्वनी कुमार, एक युवा लेखक हैं, जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत मासिक पत्रिका साधना पथ से की, इसी के साथ आपने दिल्ली के क्राइम ओब्सेर्वर नामक पाक्षिक समाचार पत्र में सहायक सम्पादक के तौर पर कुछ समय के लिए कार्य भी किया. लेखन के क्षेत्र में एक आयाम हासिल करने के इच्छुक हैं और अपनी लेखनी से समाज को बदलता देखने की चाह आँखों में लिए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सक्रीय रूप से लेखन कर रहे हैं, इसी के साथ एक निजी फ़र्म से कंटेंट राइटर के रूप में कार्य भी कर रहे है. राजनीति और क्राइम से जुडी घटनाओं पर लिखना बेहद पसंद करते हैं. कवितायें और ग़ज़लों का जितना रूचि से अध्ययन करते हैं उतना ही रुचि से लिखते भी हैं, आपकी रचना कई बड़े हिंदी पोर्टलों पर प्रकाशित भी हो चुकी हैं. अपनी ग़ज़लों और कविताओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए एक ब्लॉग भी लिख रहे हैं. जरूर देखें :- samay-antraal.blogspot.com

2 thoughts on “कितने मुसाफिर हैं यहाँ, वीरान बस्ती में

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल !

    • अश्वनी कुमार

      धन्यवाद, सर
      बहुत शुक्रिया!!!!

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