मिस्ड काल
मिस्ड कॉल
पड़ी स्मृति के किसी कोने
जिनमें दर्ज हो सकती है
किसी की शरारत
किसी की भूल
किसी की ज़रूरत
किसी की आदत
किसी की विपन्नता
मिस्ड कॉल
असंख्य बार उभर आते हैं मोबाइल स्क्रीन पर
अथक कोशिश की अनंत वेदना
कुछ परिचितों के
कुछ अपरिचितों के
जिनमे कई बार दर्ज होते हैं
उनकी पीड़ा
उनकी चिंता
उनकी व्याकुलता
उनकी मज़बूरी
क्योंकि उन्हें हमसे अपेक्षा है – एक कॉल बैक का
मैं सोचता हूँ ..कौन मिस्ड कॉल देता है मुझे – तुम्हे
रिटायर्ड पिता
जो लास्ट के चार संख्या से जानते हैं तुम्हे
ढूंढते हैं …और दबा देते हैं कॉल बटन
फिर याद आता है उन्हें ..
तुम किसी भीड़ की चपेट में फंसे होगे
मीटिंग्स के बीजी शिड्यूल में होगे
खूंसट बॉस के समक्ष जूझ रहे होगे
अपनी बेचैनियों को बाँट रहे होगे ..अपने सहकर्मियों में
झट काटकर रख देते हैं फोन दराज में
और ये एक मिस्ड कॉल बन रह जाती है तुम्हारे मोबाइल पर
बीमार माँ
जिन्हें इल्म नहीं
कैसे लॉक होता है फ़ोन
दब गयी होगी जब बदल रही होगी करवट
और घनघना कर रह गया होगा तुम्हारा फोन
माँ यूँ भी बेवज़ह याद कर लेती है बेटों को
मजबूर बीबी
बच्ची को लौट आना था घर
बुरे ख्याल तरह-तरह के
अवशेष राशि पर संभव सिर्फ एक कॉल
भरोसे का सिर्फ एक नंबर
कई-कई बार लगा चुकी थी कॉल
मिस्ड कॉल …मिस्ड कॉल
नहीं मिली बच्ची
घूम आई मोहल्ले के हर घर में
फिर कॉल – फिर कॉल
मिस्ड कॉल – मिस्ड कॉल
नया शहर और गहरी रात
लौट आई है बेटी
रोती हुई बीबी को अब भी इंतज़ार है
तुम्हारे एक कॉल बैक का
अब बांकी के कॉल्स तुम्हारी खैरियत के लिए
मिस्ड कॉल …पड़ी स्मृति में
सीमित वक़्त तक ही जिन्दा रह पाती है
मगर उसकी पीड़ा , उसका दर्द , उसकी बेचैनी ..
तुम्हारे कॉल बैक तक रहती है जिन्दा
-प्रशांत विप्लवी-
(Y)
मुक्त छंद की एक बेहतर आधुनिक कविता ! आधुनिकता होती ही ऐसी है जो छंदों में बांधना मुश्किल है बिलकुल जिंदगी की तरह जो अगले पल क्या होगी पता नहीं होता फिर उसपर लिखी जाने वाली कविता कैसे छंदबद्ध हो सकती है ? यही वजह है की आजकल के गीतों को भी अब छंदों की जरुरत नहीं रही ! एक अच्छी कविता के लिए बधाई प्रशांतजी !
शुक्रिया ..आभार सचिन जी !
वाह ! वाह !! बहुत खूब !!! मिस्ड काल के माध्यम से जिंदगी के सत्यों को उजागिर करना प्रशंसनीय है.
सिंघल जी , आशा करता हूँ आगे भी अच्छी रचनाएँ पोस्ट कर पाऊं