कहानी

मेरा पहला प्यार

पहला प्यार ! कितना मधुर एहसास दे जाते हैं ये दो ख़ूबसूरत लफ़्ज़ ! इन्हें सुनते ही ज़हन  इनके पीछे दौड़ने लगता है। और ये.…… तितलियों की तरह उड़ते -उड़ते उस बाग़ में ले जाते हैं , जहाँ फ़ज़ाओं में ख़ुश्बू है उस पहले प्यार की। नज़रों के सामने जीता जागता आ खड़ा होता है वो शख़्स, जिसके एहसास से, जिसके तसव्वुर से पहली बार मन में तरंगें उठीं थीं, और  पहली बार जिसे दुनिया की नज़रों से छिपाकर मन में क़ैद कर लेने का ख़याल आया था। उसकी सूरत, उसकी मुस्कान, उसकी हर अदा इस क़दर दीवाना कर जाती थी कि वह सुरूर घंटों छाया रहता था मेरे वजूद पर ! और काफ़ी सालों तक ‘पहले प्यार’  के नाम पर मुझे उसी का चेहरा नज़र आता था, जब तक कि मेरा सपना यथार्थ के धरातल से टकराकर घायल न हो गया।

शायद आप इसे मेरा बचपना कहकर हँसी में उड़ा दें, पर मेरे लिए वही मेरा पहला प्यार था, जो सात -आठ वर्ष की कच्ची उम्र में मुझे एक मीठा सा एहसास दे जाता था – उसे देखने का, सुनने का और उसमें खो जाने का। उसके साथ भविष्य के खूब सारे सतरंगी सपने देख बैठी थी -शादी करके घर बसाने के और उसके साथ प्यार की बारिशों में भीग जाने के। उसकी उन अदाओं का रस अपनी आँखों से प्रत्यक्ष पीने के, जो अभी तक केवल टीवी के परदे पर ही देखती आई थी।

जी हाँ ! आपने सही पहचाना ! पहली बार मेरा बालसुलभ, लेकिन रोमांटिक दिल चुराने वाला चोर कोई और नहीं , बल्कि रुपहले परदे का दिलफेंक कलाकार शशि कपूर था। उसकी हर अदा पर कई-कई आहें निकलती थीं ! और मेरे आसपास बैठकर टीवी देखने वाले उस वक़्त उसे कम और मुझे ज़्यादा देख रहे होते थे। इस बात को भाँपकर मेरी यथासंभव कोशिश रहती थी बाह्य रूप से सपाट बने रहने की !  पर कहते हैं न, इश्क़ और मुश्क़ छिपाये नहीं छिपते !  तो मेरा भी न छिप सका।

जिस समय उसका कोई गीत या दृश्य टीवी पर आ रहा होता, ख़लल डालने वाला हर व्यक्ति बैरी दिखाई देता। मन करता कि टीवी स्क्रीन से चिपककर बैठ जाऊँ,  या हाथ बढ़ाकर उसे स्क्रीन से बाहर खींच लूँ।  उसका हँसना , मुस्कुराना , उछलना , कूदना (जिसे आमतौर पर परिवारजन और  मित्रगण  ‘बंदरपना’ कहकर अच्छे खासे फ़न की तौहीन करते थे, या वो  नश्तर अप्रत्याशित रूप से मुझपर चलाये जाते थे, ये वही  जानें ) हर अदा मतवाली लगती थी।  लेकिन जहाँ वह किसी हीरोइन के करीब आता था, वहीं मुझे करंट लग जाता था और फिर उसका हीरोइन्स से डाँट या थप्पड़ खाकर  भरपूर सहृदयता दिखाते हुए मुस्कुराकर उस विरोध को सिर – आँखों पर लेना……उफ़्फ़ !! मन करता था  कि अभी बदला ले डालूँ हीरोइन से !

फिर  धीरे-धीरे उम्र के साथ-साथ यह समझ आने लगी कि यह  सिर्फ़ अभिनय है। हो सकता है ,जिन हीरोइन्स को देख-देखकर मैं बेमतलब ख़ून जला रही हूँ , उनमें से कईयों को परदे के पीछे वो बहन मानता हो ! बड़ा सुक़ून मिला इस ख़्याल से।  और रुपहले परदे पर अभिनय और वास्तविक ज़िन्दगी में फ़र्क समझाने का श्रेय जाता है फिल्म ‘गुड्डी’ व अन्य फ़िल्मी पत्र-पत्रिकाओं को।  जैसा कि मनुष्य वृत्ति होती है, चयनित स्वीकृति ( selected acceptance) की , मैंने भी उसकी परदे की छवि का उतना ही सच स्वीकारा, जितना मेरे हित में था, कि इन सब हीरोइन्स के साथ मेरे हीरो का कोई अफ़ेयर नहीं है।

लेकिन उसकी  भरपूर रोमांटिक आशिक़ और  उदारवादी पति की छवि मैंने मन से उतरने न दी,  जो अपनी पत्नी के भूतपूर्व संबंधों को जानने के बावजूद बड़े धैर्य से अपना पति धर्म निभाता रहता था।  दिल ज़ख्मी हो जाने के बाद भी एक मुस्कान उसके चेहरे पर हमेशा रही , दर्दभरी ही सही। एक पत्नी को इस से अधिक और क्या चाहिए ? बस , तभी से तय हो गया था कि पति हो तो ऐसा , वरना न हो ! उसके साथ-साथ बोनस में ये भी देखने को मिला कि वह अपने युवा बच्चों के प्यार को अपनाने में भी उतना ही उदार था, जितना पत्नी के भूतपूर्व प्यार को हज़म करने में । यानी कि एक दिलफ़ेंक आशिक़,  एक उदार पति और एक दोस्ताना पिता । इसके बाद और भी कुछ बचता है क्या ?

अब बस एक ही तलब थी कि किसी तरह जल्दी से बड़ी हो जाऊँ और इस नगीने को अपनी अँगूठी में जड़ लूँ। तब तक उसकी फ़िल्मों और तस्वीरों को देख- देखकर ही अपने प्रेम के पौधे को सींचती रही। पर हाय री किस्मत ! किसी निगोड़ी पत्रिका में पढ़ा कि वह अभिनेत्री नन्दा को अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहता है। बहुत धक्का लगा यह जानकर ! पर जल्द ही मैंने ख़ुद को सम्भाल लिया, यह सोचकर,  कि वह मुझे जानता थोड़े ही है जो मेरे लिए इंतज़ार करेगा ! पर तब से नन्दा मेरी आँखों की किरकिरी बन गई। अभी तक टीवी पर मेरे द्वारा सर्वाधिक देखा जाने वाला शख़्स शशिकपूर था ।

अब नन्दा हो गई , यह जानने के लिए कि इसमें ऐसा क्या भाया मेरे सपनों के राजा को,  कि उसने प्रणय निवेदन कर डाला ! और हर बार देखने पर यही पाया कि नन्दा की झूठी और बनावटी अदाओं के जाल में मेरा भोला -भाला हीरो फ़ँस गया है, और कुछ नहीं। ख़ैर ! कुछ समय बाद शशि के किसी फ़िरंगन से शादी करने की ख़बरें सुनीं। अचानक से नन्दा के लिए मन में कड़वाहट कम हो गई। लेकिन मेरे मन का पिंजरा तोड़ मन का पंछी उड़ चुका था। अब कोई चारा न था सौतन और उसके परिवार को अपनाने के सिवा।

कालान्तर में उसका परिवार बढ़ने की ख़बरें आती रहीं और मैं उसके बच्चों को (जो शायद उम्र में मेरे आसपास ही होंगे)  टीवी में देखकर दूर से ही उन पर अपना ममतामयी स्नेह लुटाती रही और उन तीनों में अपने पहले प्यार के अक्स को ढूँढती रही। अब भी यह सब सोचकर चेहरे पर मुस्कान खिंच जाती है कि कुछ वर्ष पहले जब नन्दा की मनमोहन देसाई से सगाई की ख़बर सुनी,  तो एक अजीब सा सुक़ून महसूस हुआ था। तो क्या ये सच है कि पहला प्यार कभी मरता नहीं है ?

One thought on “मेरा पहला प्यार

  • विजय कुमार सिंघल

    आपने किशोर मन की भावनाओं को बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है.

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