मेरी माँ ने
मेरी माँ ने झूठ बोल के आंसू छिपा लिया
भूखी रह के भी, भरे पेट का बहाना बना लिया.
सर पे उठा के बोझा जब थक गई थी वो
इक घूंट पानी पीके अपना ग़म दबा लिया.
दिन सारा कि थी मेहनत पर कुछ नहीं मिला
इस दर्द को ही अपना मुकद्दर बना लिया.
फटे हुए कपड़ों को सीं सींकर है पहनती
ग़मों को फिर आँखों में अपनी छिपा लिया.
कब से अकेली जी रही है खुद ही के सहारे
उसने था तन्हाई को अपना बना लिया.
पता था उसे आज भी आया नहीं बापू
तो डाकिया से फिर पुराना ख़त पढ़ा लिया.
‘आशू’ अगर इस माँ का अब इक आंसू निकल गया
तो मान लेना तुमने अपना सब गवां दिया.
-अश्वनी कुमार
बेह्तरीन !शुभकामनायें.
बहुत शुक्रिया सर…
बहुत खूब ! माँ की ममता की तुलना किसी से नहीं की जा सकती. बढ़िया ग़ज़ल.
माँ की ममता को नापने का कोई पैमाना नहीं है . कविता दिल को छु लेने वाली है.
आप दोनों महानुभावों का आभारी हूँ…
धन्यवाद!!!