किराये का मकान और केजरीवाल
आदमी अपने कर्मों के कारण कितनी जल्दी अर्श से फ़र्श पर आता है, इसका ताज़ातरीन उदाहरण हैं आप के नेता अरविन्द केजरीवाल। जो आदमी कुछ ही दिन पहले दिल्ली की जनता का हीरो था, आज ज़ीरो है। उसको शरण देने के लिये दिल्ली में कोई तैयार नहीं हो रहा है।
समाचार है कि दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल को किराये का मकान नहीं मिल रहा है। काफी ना-नुकुर के बाद केजरीवाल ने मुख्यमन्त्री के लिये आवंटित मकान को खाली किया। उस मकान पर कब्जा बनाये रखने के लिये उन्होंने वे सारे तिकड़म किये जो एक आम सरकारी अधिकारी या कर्मचारी करता है। कायदे से मुख्यमन्त्री का पद छोड़ने के बाद स्वतः उन्हें मुख्यमन्त्री का आवास खाली कर देना चाहिये था लेकिन उन्होंने प्रशासन को पत्र लिख कर मकान में रहने की अनुमति मांगी। तर्क यह दिया कि उनकी बेटी हाई स्कूल की परीक्षा दे रही है अतः वे मकान खाली नहीं कर सकते।
आश्चर्य होता है कि मुख्यमन्त्री बनने के पहले वे गाज़ियाबाद में रहते थे। उनकी बेटी उनके साथ ही रहकर पढ़ती थी। ४९ दिनों तक मुख्यमन्त्री रहने के बाद ऐसा कौन सा बदलाव आ गया कि उनकी बेटी गाज़ियाबाद में रहकर परीक्षा नहीं दे सकती थी? दरअसल ४९ दिनों में कुछ नहीं बदला, केजरीवाल जरुर बदल गये। उन्हें मुख्यमन्त्री के रूप में प्राप्त सर-सुविधायें रास आने लगी। मुख्यमन्त्री बनने के पूर्व सरकारी मकान, सरकारी वाहन और सरकारी सुविधाओं को न लेने की सार्वजनिक घोषणा करने के बाद भी उन्होंने सबका भोग किया और ४९ दिनों में ही उनके आदी हो गए।
वाराणसी से बुरी तरह चुनाव हारने के बाद दिल्ली के उपराज्यपाल से मिलकर केजरीवाल ने पुनः मुख्यमन्त्री बनने के लिये प्रस्ताव भी दिया जिसे स्वीकार नहीं किया गया। उनकी कथनी और करनी में फ़र्क को जनता ने अच्छी तरह समझ लिया। विश्वसनीयता के मामले में वे कांग्रेस से भी पीछे चल रहे हैं। उनके साथी भी एक-एक कर उनका साथ छोड़ते जा रहे हैं। एक बात स्पष्ट हो गई है कि अरविन्द केजरीवाल परम स्वार्थी और तानाशाही प्रवृत्ति के नेता हैं। वे अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये कुछ भी कर सकते हैं। उनकी स्वार्थी प्रवृत्ति का प्रमाण पिछला आम चुनाव था जिसमें उन्होंने भाजपा और कांग्रेस से भी ज्यादा प्रत्याशी मैदान में उतारे थे – लगभग ४३२।
उन्होंने प्रत्याशी तो उतार दिये लेकिन न तो उन्हें धन मुहैया कराया और न उनका चुनाव प्रचार किया। स्वयं शुरु से लेकर अन्त तक वाराणसी में ही जमे रहे। अन्य प्रत्याशियों की कोई सुधि नहीं ली। वाराणसी में पैसा पानी की तरह बहाया गया, दूसरे प्रत्याशियों को पैंफलेट छापने के लिये भी पैसे नहीं दिए गए। चुनाव में खर्चों का केजरीवाल ने जो व्योरा दिया है, उसके अनुसार उन्होंने नरेन्द्र मोदी से भी ज्यादा पैसा खर्च किया है। यही कारण रहा कि शाज़िया इल्मी, योगेन्द्र यादव और कुमार विश्वास जैसे उनके स्टार प्रचारक और सहयोगी अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाये। अन्ना के जनान्दोलन से उपजे केजरीवाल मोदी की सुनामी में तिनके की भांति उड़ गये। रही सही कसर उनकी महत्वाकांक्षा और स्वार्थपरता ने पूरी कर दी।
लोगबाग दिग्विजय सिंह से ज्यादा केजरीवाल पर अविश्वास करते हैं। आजकल वे जहां भी मकान के लिये जाते हैं, मकान मालिक ‘ना’ में सिर हिला देता है। जब सर्व सामर्थ्यशाली भारत सरकार भी पांच महीने तक उनसे मकान खाली करने में नाकाम रही तो साधारण मकान मालिक किस खेत की मूली है! वैसे यह भी केजरीवाल का एक ड्रामा ही है। उनकी पत्नी आयकर विभाग में कमिश्नर हैं और स्वयं केजरीवाल ने एनजीओ के माध्यम से कई सौ करोड़ रुपये बनाये हैं। वे एक मकान क्या पूरा अपार्टमेन्ट खरीद सकते हैं। लेकिन जिसको ड्रामा करने की आदत लग गई है, उसका क्या इलाज हो सकता है?
बहुत बढ़िया सिन्हा सर.
अच्छा लेख !