गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : ये कैसा शहर है…

सन्नाटों में हैं चींखें ,लुट जाने का डर है
बताओ तो मेरे दोस्तों ये कैसा शहर है

चारों तरफ हाहाकार चारों तरफ चीत्कार है
मेरे अधूरे सपनो का ये कैसा नगर है

कभी खुशियाँ अपार तो कभी गम के साए
ये जिंदगी मेरे यारों बस एक मीठा सा जहर है

उम्र गुजर जाएगी मेरी यूँ ही जूझते हुए
मंजिल है बहुत दूर और कठिन मेरी डगर है

हौसला बढ़ा देती है सफलता मेरे जीवन की
टूट जाती हूँ मैं जब मिलें ठोकरे दर बदर हैं

अपने ही अपनों के गुनाहगार हुए जाते हैं
अपनों के हिस्से पर हड़प जाने को नज़र है

हर उलझन नयी उम्मीद जगाती है मुझे
बस दौर ए मुसीबत की ये आखिरी बसर है

ग़मों की चादर को झटक कर फेंक दिया मैंने
अब खिल उठा है सूरज और खूबसूरत सहर है

बीत जाएगा ये दौर भी जूझते हुए परेशानियों से
केवल एक लम्बी काली अमावास की रात भर है .

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