धर्म-संस्कृति-अध्यात्मब्लॉग/परिचर्चा

मैं आस्तिक क्यों हूँ? (भाग – २)

  1.        धर्म और मत/मजहब में अंतर क्या हैं?

यह समझने की आवश्यकता हैं। मज़हब अथवा मत-मतान्तर के अनेक अर्थ हैं। मत का अर्थ हैं वह रास्ता जो स्वर्ग और ईश्वर प्राप्ति का हैं जोकि उस मत अथवा मज़हब के प्रवर्तक अर्थात चलाने वाले ने बताया हैं। एक और परिभाषा हैं की कुछ विशेष मान्यताओं पर ईमान अथवा विश्वास लाना जो उस मत के चलाने वाले ने बताई हैं।

१. धर्म आचरण प्रधान मार्ग हैं जबकि मजहब ईमान या विश्वास का प्राय: हैं।

२. धर्म में कर्म सर्वोपरि हैं जबकी  मज़हब में विश्वास सर्वोपरि हैं।

३. धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण स्वाभाविक गन हैं और इसका आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक हैं। इसी कारण से धर्म एक हैं और मज़हब अनेक व भिन्न भिन्न हैं। मनुष्यकृत होने के कारण मत-मतान्तर आपस में विरोधी होते हैं जबकि धर्म का एक होने के कारण कोई विरोध नहीं हैं।

४. धर्म के जो लक्षण मनु महाराज ने बतलाये हैं वह समस्त मानव जाति के लिए मान्य हैं एवं कोई भी सभ्य मनुष्य उसका विरोध नहीं कर सकता। मज़हब या मत अनेक हैं और वे केवल उसी मत या मज़हब को मानने वालों द्वारा ही स्वीकारिय होते हैं एवं अन्य द्वारा उनका विरोध होता हैं। इसलिए धर्म सर्वकालिक(सभी काल में मानने योग्य),सार्वजानिक (सभी के लिए उपयोगी), सर्वग्राह्य (सभी को ग्रहण करने योग्य) और सार्वभौमिक (सभी स्थानों पर मानने योग्य) हैं जबकि मत या मजहब किसी एक विशेष काल में,किन्हीं विशेष लोगो के समूह द्वारा, किसी विशेष स्थान पर मानने योग्य ही बन पाता हैं ।  कुछ बातें सभी मजहबों या मतों में धर्म के अंश के रूप में हैं इसलिए उन मजहबों का कुछ मान बना हुआ हैं।

५. धर्म सदाचार रूप हैं अत: धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य हैं। परन्तु मज़हबी अथवा मत का सदस्य होने के लिए सदाचारी होना अनिवार्य नहीं हैं। अर्थात जिस तरह तरह धर्म के साथ सदाचार का नित्य सम्बन्ध हैं उस तरह मजहब के साथ सदाचार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। किसी भी मज़हब का अनुनायी न होने पर भी कोई भी व्यक्ति धर्मात्मा (सदाचारी) बन सकता हैं जबकि अधर्मी व्यक्ति बिना सदाचार के भी किसी भी मत का सदस्य बन सकता हैं। उसके लिए केवल मत के मंतव्यों पर ईमान अथवा विश्वास लाता आवश्यक हैं । जैसे उदहारण के लिए कोई कितना ही सच्चा ईश्वर उपासक और उच्च कोटि का सदाचारी ही क्यूँ न हो वह जब तक हज़रात ईसा और बाइबिल अथवा हजरत मोहम्मद और कुरान शरीफ पर ईमान नहीं लायेगा वह तब तक ईसाई अथवा मुस्लमान नहीं बन सकता जबकि कोई व्यक्ति केवल सदाचार से धार्मिक बन सकता हैं।

६. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं अथवा धर्म अर्थात धार्मिक गुणों और कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता हैं। दूसरे शब्दों में धर्म और मनुष्यत्व पर्याय हैं। क्यूंकि धर्म को धारण करना ही मनुष्यत्व हैं। कहा भी गया हैं-खाना,पीना,सोना,संतान उत्पन्न करना जैसे कर्म मनुष्यों और पशुयों के एक समान हैं। केवल धर्म ही मनुष्यों में विशेष हैं जोकि मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं। धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी और अन्धविश्वासी बनाता हैं। दूसरे शब्दों में मज़हब अथवा मत पर ईमान लाने से मनुष्य उस मज़हब का अनुनाई अथवा ईसाई अथवा मुस्लमान बनता हैं नाकि सदाचारी या धर्मात्मा बनता हैं।

७. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता हैं और मोक्ष प्राप्ति निमित धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य बतलाता हैं परन्तु मज़हब मुक्ति के लिए व्यक्ति को सर्वप्रथम तो उसके प्रवर्तक से जोड़ता हैं अथवा उस मत की मान्यताओं से जोड़ना अनिवार्य बतलाता हैं। मुक्ति के लिए सदाचार से अधिक आवश्यक उस मज़हब की मान्यताओं का पालन बतलाता हैं। उदहारण के लिए अल्लाह और मुहम्मद साहिब को उनके अंतिम पैगम्बर मानने वाले जन्नत जायेगे चाहे वे कितने भी व्यभिचारी अथवा पापी हो जबकि गैर मुसलमान चाहे कितना भी धर्मात्मा अथवा सदाचारी क्यूँ न हो वह दोज़ख अर्थात नर्क की आग में अवश्य जलेगा क्यूंकि वह कुरान के ईश्वर अल्लाह और रसूल पर अपना विश्वास नहीं लाया हैं।

८. धर्म में वाह्य (बाहर) के चिन्हों का कोई स्थान नहीं हैं क्यूंकि धर्म लिंगात्मक नहीं हैं -न लिंगम धर्मं कारणं अर्थात लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं हैं परन्तु मज़हब के लिए बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य हैं जैसे एक मुस्लमान के लिए जालीदार टोपी और दाढ़ी रखना अनिवार्य हैं।

९. धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता हैं क्यूंकि वह ज्ञानपूर्वक सत्य आचरण से ही अभ्युदय और मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा देता हैं परन्तु मज़हब मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता हैं क्यूंकि मज़हब के मंतव्यों मात्र को मानने भर से ही मुक्ति का होना उसमें सिखाया जाता हैं। धार्मिक व्यक्ति को अपने आचरण में अपने व्यवहार में सात्विकता का पालन करना पड़ता हैं जबकि मज़हबी व्यक्ति को यह सिखाया जाता हैं की मत की मान्यताओं को मानने से तुम्हारी मुक्ति हो जाएगी। धर्म व्यक्ति को कर्मशील बनाता हैं जबकि मत उसे आलसी एवं अंधविश्वासी बनाता हैं।  १०. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य को स्वतंत्र और आत्म स्वालंबी बनाता हैं क्यूंकि वह ईश्वर और मनुष्य के बीच में किसी भी मध्यस्थ या एजेंट की आवश्यकता को नहीं बताता हैं । परन्तु मत या मज़हब मनुष्य को परतंत्र और दूसरों पर आश्रित बनाता हैं क्यूंकि वह मज़हब के प्रवर्तक की सिफारिश के बिना मुक्ति का मिलना नहीं मानता हैं। मत व्यक्ति को एक प्रकार से मानसिक गुलाम बनाता हैं जबकि धर्म उसे मानसिक गुलामी से स्वतंत्र करता हैं।

११. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता हैं जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशु आदि के  प्राण हरने के लिए हिंसा रुपी क़ुरबानी का आदेश देता हैं। विश्व में चारों और फैला आतंकवाद एवं ईद के दिन निरीह पशुओं की क़ुरबानी अथवा कुछ हिन्दू मंदिरों में बलि इस बात का प्रबल प्रमाण हैं।

१२. धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता हैं जबकि मज़हब मनुष्य को प्राणियों का माँसाहार करने और दूसरे मज़हब वालों से द्वेष सिखाता हैं।

१३. धर्म मनुष्य जाति को मनुष्यत्व के नाते से एक प्रकार के सार्वजानिक आचारों और विचारों द्वारा एक केंद्र पर केन्द्रित करके भेदभाव और विरोध को मिटाता हैं तथा एकता का पाठ पढ़ाता हैं। परन्तु मज़हब अपने भिन्न भिन्न मंतव्यों और कर्तव्यों के कारण अपने पृथक पृथक जत्थे बनाकर भेदभाव और विरोध को बढ़ाते और एकता को मिटाते हैं।

१४. धर्म एक मात्र ईश्वर की पूजा बतलाता हैं जबकि मज़हब ईश्वर से भिन्न मत प्रवर्तक/गुरु/मनुष्य आदि की पूजा बतलाकर अन्धविश्वास फैलाते हैं।

धर्म और मज़हब के अंतर को ठीक प्रकार से समझ लेने पर मनुष्य अपने चिंतन मनन से कल्याणकारी कार्यों को करता हैं, उनके फल को संचित करता हैं एवं उससे अन्य लोगों का परोपकार करता हैं इसे ही  पुरुषार्थ कहते हैं।  इसलिए धर्म के पालन में सभी का कल्याण हैं और मत अथवा मज़हब के पालन से सभी का अहित हैं। ईश्वर में विश्वास अर्थात आस्तिकता के कारण व्यक्ति धार्मिक बनता हैं एवं मज़हब अथवा मत के कारण अधार्मिक बनता हैं। जितने भी तर्क आस्तिकता के विरुद्ध नास्तिक लोग देते हैं वे सभी तर्क मजहब या मत पर लागू होते हैं। धर्म की सही परिभाषा एवं उसके अनुसार आचरण करने पर समाज का हित होता हैं।