इतिहास के बेदखल पन्ने
मेरी कुछ पुरानी किताबें
सन्दर्भ विहीन
निर्वासित हो चुके हैं ..
उन्हें कभी नहीं झांकना है , कहकर
मोटे गत्तों के डब्बे में डाला था
मगर इनके पैर निकल आते हैं बाहर
अँधेरी कोठरी के फर्श पर पटकते हैं ये माथा
सैकड़ों अदृश्य पृष्ठ
फरफराने लगते हैं
मैं चुपके से झांकता हूँ अन्दर
इतिहास के बेदखल पन्ने हैं ये
क्या इतिहास में दर्ज होती है हर सच्चाई ?
क्या इतिहास दर्ज कर पाता है एक-एक वाकया ?
क्या इतिहास नानी-दादी की कहानी-सी भ्रामक नहीं होती ?
क्या इतिहास नायकों का दास नहीं होता ?
क्या इतिहास को भी घृणा है खलनायकों से ?
इतिहास नहीं बोलता
बोलने वालों के बारे में लिखता है इतिहास
इतिहास, चुनता है अपने मर्जी के कुछ नायक
और उन नायकों के लिए तैयार करता है – सौ खलनायक
खैर ! मैं दर्ज नायकों या खलनायकों के वृतांत से परेशां नहीं हूँ
मैं बेचैन हूँ उन जिन्दा पृष्ठों से
जो बेदखल हैं
अपने देश के इतिहास से
वो दर्ज कराना भूल गए थे
अपने हिस्से का सच
उनकी शिनाख्त इतिहास नहीं कर पाया था
माँ-बाप ने कफ़न ढंककर बेटा मान लिया था
जला दिए गए या दफना दिए गए
क्या पता उन्हीं के श्मसान या कब्रगाह पर
मेरा घर काबिज है
और उसी घर में पड़ी है एक अधूरी इतिहास की किताब
उसी घर के अँधेरे कोठरी में फरफराते हैं सहस्त्र पृष्ठ
मुझे बेचैन करती है सिर्फ एक बात
हिटलर को जिसने रोका होगा
और उसे मिली होगी मौत
उसका जिक्र क्यों नहीं दर्ज कर पाया इतिहास
असंख्य लोगों की हत्या में प्रयुक्त हथियार
जब रेत रहा होगा कोई एक ऐसा गला
जिसने लुढ़कने से पहले तक विरोध जताया होगा
लेकिन इतिहास तक उसकी आवाज़ नहीं पहुँच पाई थी शायद
-प्रशांत विप्लवी-
पर्शांत जी जी , आप की कविता में unknown heros के लिए दर्द भरा हुआ है . पता नहीं कितने बहादर लोग हैं जो इतहास के पन्नों में दर्ज ही नहीं हो पाए . जिन को कोई जानता ही नहीं . जब हम अपने शहीदों को याद करते हैं तो हम को उन लोगों को भी याद करना चाहिए जो इतहास के पन्नों पर दर्ज नहीं हैं .
बहुत संवेदनात्मक कविता !