राष्ट्रभाषा हिन्दी के तिरस्कार पर प्रसिद्ध कवि शंकर कुरूप की व्यंग्य कविता
एक बूढ़ी औरत…. राजघाट पर बैठे- बैठे रो रही थी !!
ना जाने किसका पाप था जो अपने आंसुओं से धो रही थी !!
मैंने पूछा- माँ !! तुम कौन ??
मेरी बात सुन कर वह बहुत देर तक रही मौन !!
लेकिन जैसे ही उसने अपना मुह खोला !!
लगा दिल्ली का सिंहासन डोला !!
वह बोली- अरे !! तुम जैसे नालायको के कारण शर्मिंदा हूँ !!
ना जाने अब तक क्यो जिंदा हूँ !!
अपने लोगो की उपेक्षा के कारण तार- तार हूँ, चिंदी हूँ !!
मुझे गौर से देख… मैं तेरी राष्ट्रभाषा हिन्दी हूँ !!
जिसे होना था महारानी, आज नौकरानी है !!
हिन्दी के आँचल में तो है सद्भाव, मगर आँखों में पानी है !!
गोरी मेम को दिल्ली की गद्दी और मुझे बनवास !!
कदम- कदम पर होता है मेरा उपहास !!
सारी दुनिया भारत को देख कारण चमत्कृत है !!
एक भाषा- माँ अपने ही घर में बहिष्कृत है !!
बेटा, मै तुम लोगों के पापो को ही बासठ वर्षो से बोझ की तरह ढो रही हूँ !!
कुछ और नही कर सकती इसलिए रो रही हूँ !!
अगर तुम्हे मेरे आंसू पोंछने है तो आगे आओ और सोते हुए देश को जगाओ !!
और इस गोरी मेम को हटा कर मुझे गद्दी पर बिठाओ !!
अरे, मै हिन्दी हूँ मुझसे मत डरो हर भाषा को लेकर चलती हूँ !!
और सबके साथ दीपावली के दीपक- सा जलती हूँ !!
अच्छी कविता है. अपनी लिखी रचना भी लगाइए.
जी बिल्कुल !! जल्द ही दो-तीन लघु-कथायें लिख कर लगाता हूँ !!
सौरव जी , कविता बहुत अच्छी है , एक भाषा किसी भी राष्ट्र की होनी तो चाहिए ही . मुझे तो यह समझ नहीं आती हम लोगों को इस में दिक्कत किया है ? मैं एक सिख हूँ और हिंदी पर फखर करता हूँ . अगर राष्ट्र भाषा हिंदी नहीं तो किया फारसी होगी ? एक ऐसी ज़ुबान तो होनी ही चाहिए जिस के माध्यम से हम देश के किसी भी भाग में जा कर उन लोगों से बातचीत का मज़ा ले सकें . हम अंग्रेजी तो पैसे खर्च भी सीखना चाहते हैं लेकिन अपनी ज़ुबान मुफ्त में भी नहीं सीखना चाहते . मैं पैरस में गिया था , वोह लोग अंग्रेजी बोलना ही नहीं चाहते . उन को अपनी ज़ुबान से पियार है . हम लोग ही अंग्रेजों की गुलामी पसंद करते हैं .
आपने बिल्कुल सही कहा गुरमेलजी !! जब तक कोई भी देश अपने राष्ट्रभाषा को आगे नहीं बढ़ाता, तब तक वह देश स्वयं भी आगे नहीं बढ़ सकता !!