देह भर शोर…
पहला पड़ाव है मन
जहां आकर ठहरती है कुछ पल को
कामनाएं, प्रार्थनाएं—।
मन उगाता है पेड़
कि जिसकी छाया उसके कद से बड़ी है
फूलों के साथ खिलती हैं प्रार्थनाएं
पत्तियों के साथ झरती हैं कामनाएं—-।
पहले से बने रास्तों को नकारती हैं
धीरे धीरे काटती हैं पहाड़
गोल घुमाव भरे रास्तों से बढ़ती हैं मौन—
महामौन से चली जाती हैं असीम
गूंज के उस पार तक
प्रार्थनाएं अपना रास्ता खुद बनाती हैं—-।
आंख भर को चुनती हैं सपने
सपने भर को बनाती हैं ज़मीन
ज़मीन भर को सुखाती हैं सागर
जलमध्य तक बढ़ती हैं
बिना नौका बीच लहर आकर ठहरती हैं
लौटती हैं मन के तटबन्ध तक
कामनाएं अपने रास्ते नहीं जानतीं—-।
मन तो पड़ाव है
प्रार्थना मन से गिरे तो पहुंचती है शोर तक
कामनाएं मन से गिरें तो पहुंचती हैं देह तक
मन भर का मौन—
देह भर का शोर और
इतनी लंबी बहस—–
कमाल है—–।
माया मृग #
अच्छी कविता.
utkrushth,,,,,,,,,,,,