तुम स्वयं ही हो स्रष्टि
द्रष्टि
जो देख लेती
मन के भीतर भी
चक्षु जो बुझा देते
ह्रदय की तर्षितर भी
होठ जो बिना कहे
कर लेते कई बातें
केश जिनके समक्ष
निश्चेष्ट हैं कई रातें
शब्द, अनुक्त है जिनका अर्थ
चेष्ठा जिसके समक्ष
हैं व्यर्थ सब सामर्थ्य
लज्जा, जिसके समक्ष
हीन है समस्त सज्जा
विचार जो हैं दर्पण
रूप जो हैं सम्मोहन
स्वभाव जो है अवर्णनीय
हे अभिव्रता, हे अकल्पनीय
बढ़ा देती हो तुम तर्षितर
हे अंगज, हे प्रियवर,
तुम्हारे मुख से नहीं हटती द्रष्टि
कर नहीं पाता निर्णय
तुम्हे रचा है स्रष्टि ने
या तुम स्वयं ही हो स्रष्टि
या तुम स्वयं ही हो स्रष्टि
अभिवृत | कर्णावती | गुजरात
अच्छी कविता.