मैं आस्तिक क्यों हूँ? (भाग – ३)
- नास्तिक बनने के क्या कारण हैं?
समाधान- नास्तिक बनने के प्रमुख कारण हैं
१. ईश्वर के गुण,कर्म और स्वभाव से अनभिज्ञता
२. धर्म के नाम पर अन्धविश्वास जिनका मूल मत मतान्तर की संकीर्ण सोच हैं
३. विज्ञान द्वारा करी गई कुछ भौतिक प्रगति को देखकर अभिमान का होना
४. धर्म के नाम पर दंगे,युद्ध, उपद्रव आदि
ईश्वर के नाम पर अत्याचार, अज्ञानता को बढ़ावा देना, चमत्कार आदि में विश्वास दिलाना, ईश्वर को एकदेशीय अर्थात एक स्थान जैसे मंदिर, मस्जिद आदि अथवा चौथे अथवा सातवें आसमान तक सिमित करना, ईश्वर द्वारा अवतार लेकर विभिन्न लीला करना, एक के स्थान पर अनेक ईश्वर होना, निराकार के स्थान पर साकार ईश्वर होना, ईश्वर द्वारा अज्ञानता का प्रदर्शन करना आदि कुछ कारण हैं जो एक निष्पक्ष व्यक्ति को भी यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं की क्या ईश्वर का अस्तित्व हैं की नहीं अथवा ईश्वर मनुष्य के मस्तिष्क की कल्पना मात्र हैं। उदहारण के तौर पर हिन्दू समाज में शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश की मनाही हैं एवं अगर कोई शूद्र मंदिर में प्रवेश कर भी जाये तो उसे दंड दिया जाता हैं और मंदिर को पवित्र करने का ढोंग किया जाता हैं। यह सब पाखंड किया तो ईश्वर के नाम पर जाता हैं मगर इसके पीछे मूल कारण मनुष्य का स्वार्थ हैं नाकि ईश्वर का अस्तित्व हैं। ईश्वर गुण, कर्म और स्वाभाव से दयालु एवं न्यायकारी हैं इसलिए वह किसी भी प्राणिमात्र में कोई भेदभाव नहीं करते। ईश्वर गुणों से सर्वव्यापक एवं निराकार हैं अर्थात सभी स्थानों पर हैं और आकार रहित भी हैं। जब ईश्वर सभी स्थानों पर हैं तो फिर उन्हें केवल मंदिर में या क्षीर सागर पर या कैलाश पर या चौथे आसमान पर या सातवें आसमान पर ही क्यों माने। इससे यही सिद्ध होता हैं की मनुष्य ने अपनी कल्पना से पहले ईश्वर को निराकार से साकार किया, उन्हें सर्वदेशीय अर्थात सभी स्थानों पर निवास करने वाला से एकदेशीय अर्थात एक स्थान पर सिमित कर दिया। फिर सिमित कर कुछ मनुष्यों ने अपने आपको ईश्वर का दूत, ईश्वर और आपके बीच मध्यस्थ, ईश्वर तक आपकी बात पहुँचने वाला बना डाला। यह जितना भी प्रपंच ईश्वर के नाम पर रचा गया यह इसीलिए हुआ क्यूंकि हम ईश्वर के निराकार गुण से परिचित नहीं हैं। अपनी अंतरात्मा के भीतर निराकार एवं सर्वव्यापक ईश्वर को मानने से न मंदिर की, न मूर्ति की, न मध्यस्थ की, न दूत की, न अवतार की, न पैगम्बर की और न ही किसी मसीहा की आवश्यकता हैं।
ईश्वर के नाम पर सबसे अधिक भ्रांतियाँ मध्यस्थ बनने वाले लोगो ने फैलाई हैं चाहे वह छुआ छूत का समर्थन करने वाले एवं शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश न देने वाले हिन्दू धर्म के पुजारी हो , चाहे इस्लाम से सम्बन्ध रखने वाले मौलवी-मौलाना हो जिनके उकसाने के कारण इतिहास में मुस्लिम हमलावरों ने मानव जाति पर धर्म के नाम पर ऐसा कोई भी अत्याचार नहीं था जो उन्होंने नहीं किया था , चाहे ईसाई समाज से सम्बंधित पोप आदि हो जिन्होंने चर्च के नाम पर हज़ारों लोगो को जिन्दा जला दिया एवं निरीह जनता पर अनेक अत्याचार किये। न यह मध्यस्थ होते न ईश्वर के नाम पर इतने अत्याचार होते और न ही इस अत्याचार के फलस्वरूप प्रतिक्रिया रूप में विश्व के एक बड़े समूह को ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर नास्तिकता का समर्थन करना पड़ता। सत्य यह हैं यह प्रतिक्रिया इस व्याधि का समाधान नहीं थी अपितु इसने रोग को और अधिक बढ़ा दिया। आस्तिक व्यक्ति यथार्थ में ईश्वर विश्वासी होने से पापकर्म में लीन होने से बचता था। दोष मध्यस्थों का था जो आस्तिकों का गलत मार्गदर्शन करते थे । मगर ईश्वर को त्याग देने से पाप-पुण्य का भेद मिट गया और पाप कर्म अधिक बढ़ता गया, नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया गया एवं इससे विश्व अशांति और अराजकता का घर बन गया।
ईश्वर में अविश्वास का एक बड़ा कारण अन्धविश्वास हैं। सामान्य जन विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों में लिप्त हैं और उन अंधविश्वासों का नास्तिक लोग कारण ईश्वर को बताते हैं. सत्य यह हैं की ईश्वर ज्ञान के प्रदाता हैं अज्ञान को बढ़ावा देने का मुख्य कारण मनुष्य का स्वार्थ हैं। अपनी आजीविका, अपनी पदवी, अपने नाम को सिद्ध करने के लिए अनेक धर्म गुरु अपने अपने ढंग से अपनी अपनी दुकान चलाते हैं। कोई झाड़ फूंक से ,कोई गुरुमंत्र से, कोई गुरु के नाम स्मरण से ,कोई गुरु की आरती से, कोई गुरु की समाधी आदि से जीवन के सभी दुखों का दूर होना बताता हैं, कोई गंडा तावीज़ पहनने से आवश्यकताओं की पूर्ति बताता हैं, कुछ लोग और आगे बढ़कर अंधे हो जाते हैं और कोई कोई निस्संतान संतान प्राप्ति के लिए पड़ोसी के बच्चे की नरबलि देने तक से नहीं चूकता हैं। विडंबना यह हैं की इन मूर्खों के क्रियाकलापों को दिखा दिखा कर अपने आपको तर्कशील कहने वाले लोग नास्तिकता को बढ़ावा देते हैं। कोई भी अन्धविश्वास वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध नहीं हो सकता इसलिए नास्तिकता को प्रोत्साहन वालो द्वारा विज्ञान का सहारा लेकर नास्तिकता का प्रचार करना भी एक प्रकार से अन्धविश्वास को मिटाने के स्थान पर एक और अन्धविश्वास को बढ़ावा देना ही हैं।
चमत्कार में विश्वास अन्धविश्वास की उत्पत्ति का मूल हैं। आस्तिक समाज में मुस्लमान पैगम्बरों की चमत्कार की कहानियों में अधिक विश्वास रखते हैं, ईसाई समाज में ईसा मसीह और संतों के नाम पर चमत्कार की दुकानें चलाई जाती हैं। हिन्दू समाज में चमत्कार पुराणों में लिखी देवी-देवताओं की कहानियों से लेकर गुरुडम की दुकानों तक फल फूल रहा हैं। इन सभी का यह मानना हैं की ईश्वर सब कुछ कर सकता हैं। स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाश में इस दावें की परीक्षा करते हुए लिखते हैं की अगर ईश्वर सब कुछ कर सकता हैं तो क्या ईश्वर अपने आपको मार भी सकता हैं? क्या ईश्वर अपने जैसा एक और ईश्वर बना सकता हैं जिसके गुण-कर्म और स्वाभाव उसी के समान हो। इसका उत्तर स्पष्ट हैं नहीं। फिर ईश्वर सब कुछ कैसे कर सकता हैं? इस शंका का समाधान यह हैं की जो जो कार्य ईश्वर के हैं जैसे सृष्टि की उत्पत्ति,पालन-पोषण,प्रलय, मनुष्य आदि का जन्म-मरण, पाप-पुण्य का ;फल देना आदि का र्य करने में ईश्वर स्वयं सक्षम हैं उन्हें किसी की आवश्यकता नहीं हैं। नास्तिक लोग आस्तिकों की चमत्कार के दावों की परीक्षा लेते हुए कहते हैं की सृष्टि को नियमित मानते हो अथवा अनियमित। चमत्कार नियमों का उल्लंघन हैं। अगर ईश्वर की बनाई सृष्टि को अनियमित मानते हो तो उसे बनाने वाले ईश्वर को भी अनियमित मानना पड़ेगा। जोकि असंभव हैं। इसलिए चमत्कार को मनुष्य के मन की स्वार्थवश कल्पना मानना सत्य को मानने के समान हैं। न इससे ईश्वर का नियमित होने का खंडन होगा और न ही अन्धविश्वास को बढ़ावा मिलेगा।
दयानंद जी के शुद्रो का उपनयन संस्कार नहीं करना चाहिए।
चमार भंगी को बहुत नीच समझा है दयानंद जी ने …..
फिर मानवता की बाते करना हास्यास्पद है
केशव जी, आप लेख के विचारणीय विषय से हटकर बे-सिरपैर की बातें करते हैं. यह बौद्धिकता की निशानी नहीं है. लेख में जो लिखा गया है उस पर अपने विचार दीजिये.
विचारणीय लेख. आपने नास्तिक बनने के जो कारण बताये हैं वे सत्य हैं. अधिकांश ‘नास्तिक’ लोग धर्म के नाम पर हो रहे अधर्म को देखकर नास्तिक बन जाते हैं. मेरे एक घनिष्ट मित्र भी इसीलिए नास्तिक हो गए हैं और स्वयं को वैसा कहते भी हैं. मैं उनको समझाता हूँ कि धर्म के नाम पर जो गलत काम किये जाते हैं, उनका विरोध करना चाहिए, न कि स्वयं धर्मं का. ईश्वर का ही अस्तित्व नकारने का इसमें कोई औचित्य नहीं है, वह तो हर शुभ-अशुभ कर्म का वैसा ही फल देता है, पर समय आने पर.