ग़ज़ल
पा गये मंजिल मुसाफिर पर ये कोशिश व्यर्थ है
वक्त ने आकर कहा ये जिन्दगी की शर्त है
आदमी में हैं कई कमियां खुदा कैसे कहें
इतनी सच्ची बात पर भी क्या तुम्हारा तर्क है
मौत से मिलवा भी देगी पर अभी संघर्ष कर
खो गया हो हम-सफर तो क्या सफर का अर्थ है
बीच में घुटके ही अब रह जाये हैं अपनी सदा
कीजिए क्या तह-ब-तह परछाइयों की पर्त है
मुल्क अपना ‘शान्त’ है ये बात भी कैसे कहें
हर तरफ आतंक है उड़ती हुई इक गर्द है
बहुत अच्छी ग़ज़ल, शांत जी.