कविता : पहली और अंतिम इकाई
दो जिस्म जब बैठे थे नदी किनारे
आँखे नदी की गहराई तलाश रही थी
सवाल जवाब गूंजते रहे देर तक हर दिशा में
नदी के उसपार सुखी रेत में
चीटिया अपनी धीमी चाल से खोज रही थी
धरती का आखरी कोना
जहाँ जीवन शुन्यता में विलीन हो जाता है
जहाँ न रात होती है न दिन
जहाँ जुगनू भी नही चमकते
न अँधेरा ही पूर्ण सत्ता में उल्लू की आँखे टटोलता है
न जाने ऐसी जगह पर क्या होता है
मै इस कयास से गुजर रहा हूँ
ये दो जिस्म प्रेम तलाश करते करते
एक दिन इसी कोने में
रोंदे जाएंगे इन चीटियों के द्वारा
हो सकता है तब
प्रेम की पहली और अंतिम इकाई
यही चीटिया हो ।।
बढ़िया !