कविता : एक बादल आवारा
मैं हूँ एक बादल आवारा
एक ठौर रुकूँ कैसे
ठहर गया मैं गर कहीं
भरभराकर बरस जाऊँगा
मिट जाएगा मेरा अस्तित्व वहीं
रूकने के लिए तुम मत कहो मुझे
जाने दो मुझको अनजान डगर
गगन गगन उन्मुक्त मुझे फिरने दो
तुम गर चाहो तो कर दो
अपना मन मेरे हवाले
संग संग मेरे उसको भी उड़ने दो
मत कहो मुझे रूकने को
मैं हूँ एक बादल आवारा……….
*****विजय कांत श्रीवास्तव*****
वाह ! वाह !! बहुत खूब !