कविता : मैं क्या लिखूँ …
कभी कभी सोचता हूँ मैं क्या लिखूँ
गर मैं कवि होता तो आसमान मेरा घर होता
चांद तारों की सैर करता
सूरज पर बस्ती सजाता
कलियों के दिलों में झांकता
फूलों की महक चुरा लाता
रात को दिन बना देता
रात में सहर ले आता
हवाओं के संग उड़ता
परिंदों से बाजी लगाता
शबनमी बूंदो से प्यास बुझाता
चाँदनी मलहम ज़ख़्मों पर लगाता
पर मैं तो कवि नही हूँ
तो फिर क्या लिखूँ
अपने जज़्बात लिखूँ
या औरों के हालात लिखूँ
दिल के नासूर लिखूँ
या ज़माने की पीर लिखूँ
मैं कोई कवि नही
यूँ ही कभी कभी मैं सोचता हूँ
लिखूँ तो क्या लिखूँ………
*****विजय कांत श्रीवास्तव*****
बहुत सुन्दर और साफ सुथरी कविता.