ज्ञान के प्रकाश को फैलाने वाला पर्व गुरुपूर्णिमा
आषाढ़ शुक्ल की पूर्णिमा का दिन भारतीय संस्कृति विशेषकर सनातन हिंदू संस्कृति में बहुत ही ऐतिहासिक दिन है। इस दिन का विशेष धार्मिक महत्व भी है क्योंकि यह दिन व्यास जयन्ती के रूप में भी मनाया जाता है। यह तिथि अपने गुरु को विशेष स्मरण अर्चन वन्दन के लिए समर्पित है।
अपने समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मार्गदर्शन करने वाले को गुरु की प्रतिष्ठा दी गयी है। अक्षर ज्ञान कराने वालों को किसी विशेषकला यथा संगीत, चित्रकला, नियुद्ध, व वर्तमान में सभी प्रकार की कलाओं को सिखाने वालों को व्यवसाय य जीविकोपार्जन में मार्गदर्शन करने वाले को अर्थात जीवन मेें जिससे कुछ भी सीखते हैं उसको गुरु मानते हैं इसलिए गुरु को साक्षात् ईश्वर माना गया है। कबीर ने तो गुरु को ईश्वर से भी उच्च स्थान दिया है। लगभग सभी महापुरुषों यथा श्रीराम, श्रीकृष्ण, चन्द्रगुप्त, शिवाजी, विवेकानन्द, दयानन्द के विकास में गुरुओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गुरु ही सच्चे शिष्य को ईश्वर तक पहुंचाता है । एक साधारण बालक के प्रथम गुरु तो स्वयं उसके माता-पिता ही होते हैं।
हमारी संस्कृति मेें गुरु का बहुत सम्मान है। हर परिस्थिति मेें गुरु का बहुत ही आदर करना चाहिए। गुरुभक्ति की बहुत सी कथाएं व दन्तकथाएं हमारे इतिहास व वेदपुराणों में भरी पड़ी है। एकलव्य की गुरुभक्ति सभी जानते हैं। सिख समाज में भी गुरु महिमा का अदभुत वर्णन व उदाहरण देखने को मिलता है। जैनधर्मावलम्बी भी अपने गुरुओं की विधिसम्मत पूजा अर्चना करते हैं। गुरुपूर्णिमा के दिन सभी मंदिरों एवं आश्रमों में गुरुपूर्णिमा उत्सव पूरे उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है। यह दिन व्यास पूर्णिमा का भी दिन है।
महर्षि व्यास महर्षि पाराशर के पुत्र हैं। द्वीप में जन्म होने के कारण द्वैपायन कहलाये। चूंकि उनकावर्ण घननील है अतः उन्हें कृष्णद्वैपायन कहा गया। भगवान वेदव्यास ने ही महाभारत की रचना की। वे ऐसे महान महर्षि थे जिन्होनें अपनी आंखों के सामने अपने ही बान्धवों के समृद्धशाली समाज को बनते और नष्ट होते देखा। उनके उपदेश तथा सीख यदि ग्रहण की जाती तो इतिहास ही बदल जाता।
आदियुग में वेद एक ही था। महर्षि अंगिरा ने उनमें से भौतिक उपयोग के छंदों को संग्रहीत किया। यह संग्रह छंदस, अंगिरस या अथर्ववेद कहलाया। भगवान व्यास ने उसमें से ऋचाओं गायप्न योग्य मंत्रों और गद्यभाग को पृथक- पृथक संकलित किया। इस प्रकार ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेंद का वर्तमान स्वरूप निश्चित हुआ। इस कार्य से वे वेदव्यास कहलाये। भगवान वेदव्यास ने पुराणों का संकलन करके उन्हें सभी के पढ़ने के योग्य बना दिया। अष्टादश पुराणों के अतिरिक्त बहुत से उपपुराण तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष संबंधी सिद्धान्त एकत्र करने के विचार से व्यास ने महाभारत की रचना की।
महाभारत को पंचम वेद कहा गया है। महाभारत की कथा भगवान व्यास जी बोलते गये और साक्षात गणेशजी लिखते गये।
हिंदू संस्कृति का वर्तमान स्वरूप महर्षि व्यास द्वारा ही सजाया संरक्षित किया गया है। वेद, शास्त्र, पुराण, कला, इतिहास एवं ज्ञान के सभी क्ष्ेात्रों में पारंगत महर्षि व्यास ने माता सत्यवती के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मां ने उनका सिर सहलाया। महर्षि व्यास ने तपस्या के बल पर वृद्धावस्था व मृत्यु को जीत लिया था। महाभारत युद्ध के काफी समय के बाद ब्रहमा जी ने उनसे कथा लिखने का अनुरोध किया। गणेश जी कथा लिखने के लिये तैयार हो गये पद उनकी एक शर्त थी- ‘मेरे लिखते समय आप कथा कथन एक क्षण के लिए भी न रोंके। कथा प्रवाह अखण्ड हो। मैं उसी सहजता से लिख सकूंगा जिस सहजता से कोई पानी पी जाता है।’ महर्षि व्यास ने गणेश जी की शर्त स्वीकार कर ली। इस प्रकार महाभारत की कथा की रचना हुई। इसीलिए व्यास जी को ‘गुरुणां गुरु’ भी कहा गया है।
बहुत अच्छा लेख. गुरु की महिमा अपरम्पार है.
बंदऊँ गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि.
महामोह तम पुंज, जासु वचन रवि कर निकर. (रामचरितमानस)