कहानी

कहानी : स्त्रीत्व मरता कब है

नक्सली लड़कियां जंगलो में भटक भटक थकान से टूट चुकी थी थोड़ा आराम चाहती थी. तभी संगीत की मधुर आवाज सुन ठिठक गयी| ना चाहते हुए भी वे मधुर आवाज की ओर खींचती चली गयी| गाने की मधुर आवाज की ओर बढ़ते बढ़ते वह गाँव के बीचोबीच आ पहुंची. एक सुरक्षित टीले पर चढ़ कुछ सुकोमल सुसज्जित लडकियों को देख ग्लानी से भर उठी|

देश भक्ति गीत पर थिरकती युवतियां कितनी सुन्दर लग रही है. बालो में गजरा, सुन्दर साड़ी, चेहरे पर एक अलग ही लालिमा छायी है और हमें देखो बिना शीशा कंघी के कस कर बांधे हुए बाल, लड़को से लिबास, कंधे पर भारी भरकम राइफल, दमनकारी अस्त्र शस्त्र लादे जंगल जंगल भटक रहे है. हम भी तो इन्ही की तरह थे सुकोमल अंगी, पर आज देखो कितने कठोर हो गये, समय ने हममें बहुत परिवर्तन कर दिया. एक भी स्त्रियोचित गुण नहीं रह गया| जिसे देखो हमें रौद आगे बढ़ जाता है. सारे सपने चकनाचूर हो गये कहने को कोई अपना नहीं इन हथियारों के सिवा| ये हथियार भी हमारी अस्मिता की रक्षा कहाँ  कर पाए? हाँ, हम खुनी जरुर बना दिए|

सभी नक्सली लड़कियां ने एक दूजे की आँख में देख कर एक कडा फैसला लेने का निश्चय किया | निर्णय लेते ही धीरे धीरे ऐसे स्थान पर आ गयी जहाँ से पोलिस की नजर उन पर पड़ सके| उस दिन शायद १५ अगस्त था. अतः पूरी लाव लश्कर  के साए के तले गाँव वाले जश्न मना रहे थे| किसी पोलिस वाले की निगाह उन नक्सली लड़कियो पर पड़ गयी, जो मग्न थी जश्न देखने में| सभी गाँव वाले और पोलिस वाले मिलकर नक्सली लड़कियो को धर दबोचे|

पोलिस अपने कामयाबी पर फूले नहीं समा रही थी और नक्सली लड़कियां मंद मंद मुस्करा स्त्रियों जैसी बनने के सपने बुन रही थी| उन चंद क्षणों में हजारो सपने देख डाले होगें| सभी मुख्यधारा में शामिल होने का मन ही मन जश्न मनाते हुए सब एक दूजे की ओर देख जैसे कह रही थी स्त्रीत्व मरता कब है? देखो आज इतनो सालो बाद आखिर जाग ही गया| आज भटकाव के रास्तें से लौट जो आई थी. इसकी ख़ुशी भी उनके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी|

……..सविता मिश्रा

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|

6 thoughts on “कहानी : स्त्रीत्व मरता कब है

  • सविता मिश्रा

    धनंजय बेटा शुकिया

  • सविता मिश्रा

    नीलेश गुप्ता भाई शुक्रिया

  • सविता मिश्रा

    आभार भैया आपका

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कहानी, बहिन जी. नारी के नारीत्व में ही उनके जीवन की सार्थकता है. नक्साली महिलाएं इसको समझ लें तो नक्सलवाद कि समस्या ही हल हो जाएगी.

  • धनंजय सिंह

    सही बात है. नारी आखिर नारी ही रहेगी. अच्छी है कहानी.

  • नीलेश गुप्ता

    कहानी बहुत अच्छी लगी. भटकी हुई नक्सालियों को मुख्य धरा में आना चाहिए.

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