मर हम गए
जब दर्द हद से बढ़ गया, तब मर हम गए.
मरहम कहीं जब न मिला, तब मर हम गए.
भोर शब होने लगी बसमें नहीं कुछ भी.
जब हर कोई गुम हो चला, तब मर हम गए.
कोई बचा न हम कदम, कोई भी मुहब्बत.
ये दिल बहुत सहता रहा, तब मर हम गए.
होते रहे तब्दील हम दर्दों की अंजुमों से
साहिल का फिर भी न पता, तब मर हम गए.
हो रही थी हर कहीं मुहब्बतें बरखा.
दिल रह गया सूखा खड़ा, तब मर हम गए.
-अश्वनी कुमार
achhi gazal hai badhaayi
आदरणीय गुंजन जी मैं आभारी हूँ आपका जो आपने मेरी ग़ज़ल को पसंद किया.
कविता अच्छी लगी
धन्यवाद दोस्त!!
अच्छी गजल
गुरु जी शुक्रिया!!!