फुर्सत
फ़ुर्सत ही ज़िन्दगी में लगे सबसे है दुश्वार,
मदहोशियों के दौर मगर प्यासा रहता प्यार।
ऐ जोश ज़रा समझ तो क्या ख़ुशी का मयार,
साया-भी साथ हो ना वहाँ किस की है दरकार।।
फ़ुर्सत ही ज़िन्दगी में लगे ————
क्यों चाहता हूँ मैं हरेक का बनूं मुख़्तियार,
हर दर्द उसके जिगर का मै ले सकूं उधार।
नेकी का नहीं मिल सका अच्छा कभी सिला,
ये जान के भी मानने को क्यूं नहीं तैयार।।
फ़ुर्सत ही ज़िन्दगी में लगे ————
ज़िद है हर एक शै को करूं फ़ौरन अख़्तियार,
बदली है ना बदलेगी कभी वक़्त की रफ़्तार।
और उसके थपेड़ों से कोई ना कभी बचा,
पर यही बात मानने को हूँ नहीं तैयार।।
फ़ुर्सत ही ज़िन्दगी में लगे ————
अपनी से अलग राय हर इक लगे है बेकार,
दूजे को समझता ना कुछ बढ़ाऊं मैं तक़रार।
हर एक से कहता फिरूं ये तरीक़ा है क्या,
और ख़ुद को ही मानूँ मैं समझदार लगातार।।
फ़ुर्सत ही ज़िन्दगी में लगे ————
अरमानों हसरतों का बढ़ता जाए है अम्बार,
और उन के लिए माशरे से ख़्वाहिशें हज़ार।
हक़ किसी और पे मुझेे क्या हो औ क्यों भला,
ये सोचना भी लगे है बस सबसे नागवार।।
फ़ुर्सत ही ज़िन्दगी में लगे ————
शादी से मिला सब जो था दोनों को ही दरकार,
पैदा ना जाने क्यूँ हुईं ये इतनी सब दरार।
हर अपने शौको काम को है वक्त की भरमार,
फुर्सत का रोना तभी जब ख्वाहिश नहीं दमदार।
फ़ुर्सत ही ज़िन्दगी में लगे ————
बच्चों को मुहय्या है खिलौनों का तो अम्बार,
बातें जो वो पूछा करें पायेे हैं बस दुत्कार।
हर किसी से उम्मीदों का हक हमें लगातार,
चाहे जो हमसे कोई कुछ हरगिज है नागवार।
फ़ुर्सत ही ज़िन्दगी में लगे ————
समझूँ हूँ अफ़लातून – पर हूँ तो मैं डग्गामार,
शेख़ी बघारने में कोई मुझसा ना हुशियार।
‘बेदिल’ ना सलीक़े से तू कुछ कर सके बयाँ,
.िजद फिर भी ये कि कोई ना है मुझ सा समझदार।।
फ़ुर्सत ही ज़िन्दगी में लगे ————
अपनी से अलग राय लगे हर इक है बेकार,
फ़ाज़िल हो या जाहिल करूँ मैं सब से ही तकरार।
हर राय-मशविरे या तवज्जोह से भी हो जाता हूँ खूँख्वार,
हम खुद परस्त हैं औ यही है हमारा प्यार।
‘बेदिल बदायूँनी’
अच्छी कविता, अनूप जी।
बढ़िया रचना आदरणीय …
अरमानों हसरतों का बढ़ता जाए है अम्बार,
और उन के लिए माषरे से ख़्वाहिषें हज़ार।
हक़ किसी और पे मुझेे क्या हो औ क्यों भला,
ये सोचना भी लगे है बस सबसे नागवार।।