एक गीतिका
बीती शब तेरी जो घर में चैन से सोकर
रात गुजरी तमाम वो मेरी तनहा रोकर
भुला दो तुम मुझे अब ये तो मुमकिन है
जीना मुमकिन नहीं मेरा तुमको खोकर
मिले मुझ को जमाने से धोखे इस कदर
के फ़ितरत सी बन गयी है खाना ठोकर
बूँद से भी पानी की बचाता हूँ ये चेहरा
वो छुअन न धुल जाये कहीं मुँह धोकर
व़फा की तुम से उम्मीद करूँ भी कैसे
मिलेगी कैसे व़फा खुद बेवफ़ाई बोकर
बहुत सुंदर, आपको बधाई…
हार्दिक धन्यवाद अश्वनी कुमार जी…
अच्छी ग़ज़ल !
आदरणीय विजय जी पसंद करने के लिये सादर आभार…नमन