गीतिका
जाम भरा था जिंदगी का मगर हमें पीना नहीं आया ,
सांसें तो लेते रहे हम मगर हमें जीना नहीं आया ,
ताउम्र रहे लब मेरे कुछ इस कदर सिले हुए कि ,
लब तो हिले मगर, दर्द लफ्जों में बयां करना नहीं आया ,
कई साज़ कई तराने गाये जिंदगी ने हर राह हर मोड़ पर ,
सुनते रहे मगर किसी साज़ पर हमें गुनगुनाना नहीं आया ,
सिलसिला बदस्तूर जारी रखा ज़माने ने ज़ख्म देने का ,
हसते रहे मगर हमें , ज़ख्मों पर मरहम लगाना नहीं आया ,
दुनिया बरसों से कहती रही बेदर्द , बेमुरव्वत हमें ,
सुनते रहे मगर हमें दुनियां को झुठलाना नहीं आया ।
– प्रिया वच्छानी
शुक्रिया विजय कुमार सिंघल जी ।
बहुत ही सुन्दर कविता प्रिया जी
शुक्रिया अभिवृत जी
बहुत अच्छी कविता, प्रिया जी. इसी प्रकार की कवितायेँ हम और भी पढ़ना चाहते हैं.
जी जरुर कोशिश करुंगी विजय जी