सूखे दरख्त की पीड़ा
हां!
मै समझ सकती हूं,
नदी के किनारे अब तक खड़े,
उस सूखे दरख्त की पीड़ा,…..
जिसने जाने कितने सावन अपने भीतर सोखे,
कितनी सर्दियां ठिठुरता रहा अकेला,
जिसे फलों का बोझ उठाकर भी हर बार पत्थरों की चोटें ही मिली,
जाने कितने पतझड़ खुद से अपनों की तरह पत्तों के बिछड़ने का दर्द सहा,
जाने कितनी प्रेम कहानियों का गवाह बना,
कितनी बार जलाने के लिए टहनियों के कटने का दर्द सहा,
कितने जोड़ों ने उस पर दिल कुरेद कर उस पर अपना नाम लिखा,
कितने थके मुसाफिरों का आरामगाह बना,
और तो और वो पंछी भी भूल गए,
जो रहते थे उसपर बनाकर घोंसले,…..
अब जब उम्र के इस पड़ाव में
जब पत्तों ने साथ छोड़ दिया तो रह गए हैं,
शरीर पर नासूर की तरह रिसते घाव,
आस पास सन्नाटे में गूंजती सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट,
खोखली होती जड़ें,
उजड़े हुए घरोंदों के तिनके,
रोज कुल्हाड़ी की मार से टुकड़े टुकड़े होता अस्तित्व,….
फिर भी
उस दरख्त का जमीन से
ये कैसा गठबंधन
जो छूटता ही नहीं,…
सब छोड़ गए
पत्तों की हरियाली,
फूलों की खुशबू,
फलों का स्वाद,
मुसाफिरों की जमघट,
पंछियों की चहचहाहट,
मोहब्बतों की वादियां,
जड़ों की नमी,
ठंडी हवा ने भी पत्तों के साथ ही आना छोड़ दिया,….
फिर भी आज भी मजबूती से खड़ा है,
अपनी खोखली जड़ों के साथ,
वो दरख्त कटने या ढह जाने के इंतजार में,…
क्या आप कुछ महसूस करते हैं
उसे देख कर,…?
मैं करती हूं,……….
अब मैं डरती हूं
नियति की कठोरता से,…..
वक्त के थपेड़ों से,….
उम्र के उस पड़ाव से,…
जब मुझमें जिम्मेदारियों को निभाने की क्षमता घटती जाएगी,
कर्तव्यों के साथ साथ अधिकारों के दायरे भी सीमित होने लगेंगे,
जब समय छीन लेगा मुझसे मेरा नैसर्गिक सौंदर्य,
परिस्थितियां मेरी जमा पूंजी के संदूक के साथ,
मेरे रिश्तों की जड़ों को भी खोखला कर देगी,
और
क्या मैं भी इंतजार करूंगी
अपने ढह जाने का,….और फिर????,….. प्रीति सुराना
बहुत सुन्दर कविता , यही तो है जिंदगी का कडवा सच !!
बहुत सुन्दर कविता, प्रीति जी.
धन्यवाद