राजनीति

एक महिला!

महिला! ये शब्द सुनते ही मन में प्राचीन सभ्यता की औरत की एक छवि खुदब-खुद बन जाती है. जो हमारे देश में न जाने कब से एक दुपट्टे में छिपा कर रखा गया एक सामान लगती है. सामान को तो हम धुल मिटटी से बचने के लिए दुपट्टे या किसी कपडे ढक देते हैं. परन्तु महिलाओं को क्यों…??? ये एक बड़ा सवाल था जिसका उत्तर जानने के लिए इतिहास को खंगाला गया. महिलाओं की स्थितियों पर चर्चा होने लगी तो हमें पता चला की महिलाओं को दूसरों की नज़रों से बचाने के लिए पर्दा प्रथा में बांधा गया था. बगैर उसकी मर्जी के उसे इस प्रथा में बंधना पड़ा, क्योंकि हम एक पुरुष प्रधान देश में रहते हैं. जहां महिलाओं को दोयम दर्जा दिया जाता है. उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता है. फिर चाहे वह अपने घर में हों या घर से बाहर. प्राचीन काल से हमारे देश की महिलाएं पुरुषों से दबकर रही हैं. उनके इशारे पर काम करने को उन्हें बचपन से ही प्रेरित किया जाता है. बचपन से उनके अन्दर ये गुण डाल दिए जाते हैं कि उन्हें हमेशा पुरुषों के ही अधीन रहना है. उनसे ऊपर नहीं जाना है. परन्तु समय का पहिया कभी एक जगह ठहरता नहीं है. वह अपनी परिधि पर निरंतर अग्रसर है. चल रहा है. भाग रहा है आगे के ओर, और मांग कर रहा है, महिलाओं की आज़ादी की.

समय बदला महिलाओं की आज़ादी की मांग उठाकर सामने आने लगी. और बड़े संघर्ष के बाद महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा देने की साज़िश रची जाने लगी. जो शायद कभी ही महिलाओं की मिल पाएगी. खैर मन तो जा ही रहा है. महिलाओं को पुरुषों के बराबर, चाहे फिर कितने ही अपराध बढ़ रहे हों उनके खिलाफ, हिंसा बढती जा रही हो उनके खिलाफ, कोख में ही क्यों न मारा जा रहा हो उन्हें, पैदा करने के बाद बेशक उन्हें सड़क पर छोड़ दिया जा रहा हो. पर फिर भी वह पुरुषों के बराबर हैं. नौकरियों में बेशक उन्हें मेहनताना पुरुषों के मुकाबले काफी कम मिलता हो, एक ही काम का फिर भी वह पुरुषों के बराबर हैं. क्या माना जा सकता है महिलाओं को पुरुषों के बराबर…??? आज की स्थिति परिस्थिति देखकर लगता है…??? शायद कभी नहीं. और जो कुछ पिछले चार से पांच सालों में महिलाओं के खिलाफ घटा है, हिंसा बढ़ी है. बलात्कार बढे हैं. उन्हें देखकर तो बिलकुल भी नहीं.

फिर भी महिलाएं इस बात से परेशान नहीं हैं. कहते हैं महिलाएं दूसरों की ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी तलाश लेती हैं. उनसे बड़ा त्यागी कोई नहीं हो सकता. सच भी है. और इस महिला के बारे में जानकर तो यकीन और पुख्ता हो जाता है. इरोम चानू शर्मिला अपने नहीं अपने राज्य अपने परिवार और अपने राज्य के सभी परिवारों को एक ऐसे कानून से निज़ात दिलाने का प्रयास पिछले 15 सालों से संघर्ष कर रही है. यह कोई आम संघर्ष नहीं है. यह वह संघर्ष हैं जो एक आम आदमी कभी भी नहीं कर सकता है. परन्तु इस महिला के जज्बे को सलाम किये बिना हम रह नहीं सकते हैं. इरोम शर्मिला ने जब भूख हड़ताल की शुरुआत की थी, वह मात्र 28 साल की युवा थीं। कुछ लोगों को लगा था कि यह कदम एक युवा द्वारा भावुकता में उठाया गया है। लेकिन समय के साथ इरोम शर्मिला के इस संघर्ष की सच्चाई लोगों के सामने आती गई। आज वह बयालीस साल की हो चुकी हैं। तमाम अवरोधों और मुश्किलों के बावजूद उनकी भूख हड़ताल आज भी जारी है। भले ही इन वर्षों में इरोम शर्मिला का कृषकाय शरीर और जर्जर व कमजोर हुआ हो पर कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करने वाली उनकी आन्तरिक ताकत और इच्छा शक्ति बढ़ी है। (कुछ दिनों पहले उन्हें रिहा तो कर दिया गया परन्तु वह फिर से अपने अनशन पर बैठ गई. तो यह भी हमारी सरकार को मंज़ूर नहीं था. उन्हें फिर से हिरासत में ले लिया गया और हुक्मरानों की ओर से सन्देश आया की हम उनकी सलामती कहते हैं इसलिए उन्हें फिर से हिरासत में लिया गया है.) इसीलिए इसे मात्र भावुकता नहीं कहा जा सकता है. बल्कि यह पूर्वोत्तर भारत खासतौर से मणिपुर के ठोस यथार्थ की आँच में पका उनका विचार व दृढ इच्छा शक्ति है जिसके मूल में दमन और परतंत्रता के विरुद्ध दमितो, उत्पीडि़तों द्वारा स्वतंत्रता की दावेदारी है। इरोम शर्मिला के संघर्ष में हमें इसी दावेदारी की अभिव्यक्ति मिलती है। इसके अन्तर में स्वतंत्रता की छटपटाहट और अदम्य साहस से लबरेज मौत को धता बता देने वाली ताकत है। इसीलिए आज इरोम शर्मिला इस्पात की तरह न झुकने, न टूटने वाली मणिपुर की ‘लौह महिला’ के रूप में जानी जाती हैं।

बात दो नवम्बर 2000 की है। मणिपुर की राजधानी इम्फाल से सटे मलोम में ‘शान्ति रैली’ के आयोजन के सिलसिले में इरोम शर्मिला एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैण्ड पर सैनिक बलों द्वारा ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाई गईं। इसमें करीब दस निरपराध लोग मारे गये। मारे गये लोगों में 62 वर्षीया वृद्ध महिला लेसंगबम इबेतोमी तथा बहादुरी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चन्द्रमणि शामिल थे। यह सब इरोम शर्मिला को आहत व व्यथित कर देने वाली घटना थी। वैसे यह कोई पहली घटना नहीं थी जिसमें सुरक्षा बलों ने नागरिकों पर गोलियाँ चलाई हो, दमन ढ़ाया हो पर इरोम शर्मिला के लिए यह दमन का चरम था। इस घटना के बाद इरोम के लिए शान्ति रैली निकाल कर इन घटनाओं की कार्रवाइयों का विरोध अपर्याप्त या अप्रासंगिक लगने लगा। लिहाजा उन्होंने संकल्प किया कि अब यह सब बर्दाश्त के बाहर है। यह तो निहत्थी जनता के विरुद्ध षड्यंत्र है. उन्होंने माँग की कि मणिपुर में लागू कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम हटाया जाए. इस एक सूत्री माँग को लेकर उन्होंने नैतिक युद्ध छेड़ दिया. तीन नवम्बर की रात में आखिरी बार अन्न ग्रहण किया और चार नवम्बर की सुबह से उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी.

इस भूख हड़ताल के तीसरे दिन सरकार ने इरोम शर्मिला को गिरफ्तार कर लिया। उन पर आत्महत्या करने का आरोप लगाते हुए धारा 309 के तहत कार्रवाई की गई और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. तब से वह लगातार न्यायिक हिरासत में हैं। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल का वह वार्ड जहाँ उन्हें रखा गया है, उसे जेल का रूप दे दिया गया है। वहीं उनकी नाक से जबरन तरल पदार्थ दिया जाता रहा. इस तरह इरोम शर्मिला को जिन्दा रखने का ‘लोकतांत्रिक’ नाटक पिछले एक दशक से ज्यादा समय से चल रहा है। उल्लेखनीय है कि धारा 309 के तहत इरोम शर्मिला को एक साल से ज्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता।  इसलिए एक साल पूरा होते ही उन्हें रिहा करने का नाटक किया जाता और फिर उन्हें गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत के नाम पर उसी सीलन भरे वार्ड में भेज दिया जाता था. और जीवन बचाने के नाम पर नाक से तरल पदार्थ देने का सिलसिला चलाया जाता था.

दरअसल, इरोम शर्मिला जिस ‘कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम’ को हटाये जाने की माँग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं, उस कानून के प्रावधानों के तहत सेना को ऐसा विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके अन्तर्गत वह सन्देह के आधार पर बगैर किसी वारण्ट, कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है, किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकती है. इतना ही नहीं, यह कानून सशस्त्र बलों को किसी भी दण्डात्मक कार्रवाई से बचाती है जब तक कि केन्द्र सरकार उसके लिए मंजूरी न दे. देखा गया है कि जिन राज्यों में यह ‘कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम’ लागू है, वहाँ नागरिक प्रशासन दूसरे पायदान पर पहुँच गया है तथा सरकारों की सेना व अर्द्धसैनिक बलों पर निर्भरता बढ़ी है. इन राज्यों में जनतंत्र शिथिल हुआ है और सैन्यीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है, जन आन्दोलनों को दमन का सामना करना पड़ा है तथा नागरिकों में अलगाव की भावना बढ़ी है. हालत यह है कि आज देश के पाचवें हिस्से में ‘कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम’ लागू है।

इसी का चरम रूप हमें मणिपुर जैसे पूर्वोतर राज्य में देखने को मिलता है जहाँ ‘कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम’ शासन के 56 वर्षों में बीस हजार से ज्यादा नागरिकों को अपनी जानें गंवानी पड़ी हैं. इसी की देन एक तरफ अपमान, बलात्कार, गिरफ्तारी व हत्या है तो दूसरी तरफ तीव्र घृणा, आत्मदाह, आत्महत्या, असन्तोष व आक्रोश का विस्फोट. इस संदर्भ में 2004 में मणिपुर की महिलाओं द्वारा किये संघर्ष की चर्चा करना गलत नहीं होगा. उनके आक्रोश और चेतना का विस्फोट हमें देखने को मिला जब असम राइफल्स के जवानों द्वारा  थंगजम मनोरमा के साथ किये बलात्कार और हत्या के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने कांगला फोर्ट के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया. उन्होंने जो बैनर ले रखा था, उसमें लिखा था ‘भारतीय सेना आओ, हमारा बलात्कार करो’. इरोम शर्मिला इसी यथार्थ की मुखर अभिव्यक्ति हैं.

इरोम शर्मिला कोई आतंकवादी नहीं हैं. उसके प्रतिरोध का रास्ता शांतिपूर्ण व अहिंसक है. यही कारण है कि दुनिया में शांति व मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों को इरोम शर्मिला के संघर्ष ने आकर्षित किया है. इस संघर्ष को सम्मानित किया गया है. 2005 में इरोम को नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया था. वहीं, 2007 में मानवाधिकारों के लिए ग्वांजु सम्मान उन्हें दिया गया, 2010 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर शांति पुरस्कार जैसे अनगिनत पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. भले ही इरोम शर्मिला के संघर्ष को सम्मानित किया जा रहा हो लेकिन भारतीय राज्य उन्हें कोई स्वतंत्रता देने को तैयार नहीं है. उसकी नजर में वह कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता नहीं बल्कि अपराधी है. जो मान्य नहीं है. समझ से परे की बात है. आखिर क्यों हमारी सरकार उनकी बातों पर ध्यान नहीं दे रही है…???

हालत तो यह है कि उन्हें सामान्य बंदियों की सुविधाओं और अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया है. दो साल पहले अक्टूबर मॉस में जब उन्हें अदालत में पेश किया गया था, तो इरोम ने प्रेस कांफ्रेंस करने की इजाजत मांगी थी लेकिन इरोम को अपनी बात प्रेस को कहने की स्वतंत्रता भी नहीं दी गई. वह ऐसी कैदी हैं  जिनसे मिलने जुलने की इजाजत भी किसी को नहीं थी. उसे अकेलेपन में जीने के लिए बाध्य किया जा रहा था. हमारी आज़ादी के संघर्ष के दो बड़े नायक रहे हैं – शहीद भगत सिंह और जगत पिता महात्मा गांधी. इन दोनों नायकों की जो छवियां रही हैं, उसकी अनूठी एकता हमें इरोम शर्मिला के व्यक्तित्व और उनके आंदोलन में देखने को मिलती है.  जहां इरोम शर्मिला के अन्दर अपने उद्देश्य के लिए शहीद भगत सिंह जैसा  आत्मोत्सर्ग का जज़्बा है, वहीं उनके आंदोलन की प्रेरणा महात्मा गांधी हैं. यह प्रतिरोध संघर्ष की ऐसी राह है जिसमें रक्त का एक बूंद भी नहीं बहता लेकिन इसकी मारक क्षमता असीमित है. यह शांति के लिए अहिंसा का ऐसा मार्ग है जहां राज्य और उसकी शक्तियां लगातार बेनकाब हो रही हैं. और आतंक एवं हिंसा का पर्याय बनती जा रही हैं.

हकीकत में इरोम शर्मिला का यह संघर्ष हमारे लोकतंत्र के खंडित चेहरे को सामने लाया है. यह राज्य व्यवस्था से लेकर हमारी न्याय व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है. पिछले साल मार्च में जब दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में इरोम को पेश किया गया, बार-बार न्यायालय द्वारा इस बात पर जोर दिया जाता रहा कि वह अपने जीवन को खत्म करना चाहती है, वह आत्महत्या की राह पर है. इस अदालत में दिया उनका बयान गौरतलब है. उन्होंने जोर देकर कहा कि मैं सामाजिक कार्यकर्ता हूं और मैं आत्महत्या के विरुद्ध हूं. मैं जिन्दगी से बेहद प्यार करती हूं. मैं शांति और इंसाफ चाहती हूं. मेरा आंदोलन अहिंसात्मक है तथा कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को खत्म करने के लिए है. कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम जैसे कानून को खत्म कर दिया जाए, मैं अपना आंदोलन समाप्त कर दूंगी. इरोम अपनी इस भावना को अपनी कविता में भी अभिव्यक्त करती है – “कैदखाने के कपाट पूरे खोल दो. मैं और किसी राह पर नहीं जाऊँगी. काँटों की बेडि़याँ खोल दो. होने दो मुझे अंधियार का उजाला”.

-अश्वनी कुमार

अश्वनी कुमार

अश्वनी कुमार, एक युवा लेखक हैं, जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत मासिक पत्रिका साधना पथ से की, इसी के साथ आपने दिल्ली के क्राइम ओब्सेर्वर नामक पाक्षिक समाचार पत्र में सहायक सम्पादक के तौर पर कुछ समय के लिए कार्य भी किया. लेखन के क्षेत्र में एक आयाम हासिल करने के इच्छुक हैं और अपनी लेखनी से समाज को बदलता देखने की चाह आँखों में लिए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सक्रीय रूप से लेखन कर रहे हैं, इसी के साथ एक निजी फ़र्म से कंटेंट राइटर के रूप में कार्य भी कर रहे है. राजनीति और क्राइम से जुडी घटनाओं पर लिखना बेहद पसंद करते हैं. कवितायें और ग़ज़लों का जितना रूचि से अध्ययन करते हैं उतना ही रुचि से लिखते भी हैं, आपकी रचना कई बड़े हिंदी पोर्टलों पर प्रकाशित भी हो चुकी हैं. अपनी ग़ज़लों और कविताओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए एक ब्लॉग भी लिख रहे हैं. जरूर देखें :- samay-antraal.blogspot.com

2 thoughts on “एक महिला!

  • विजय कुमार सिंघल

    विचारोत्तेजक लेख है. भले ही हम इससे पूरी तरह सहमत न हों, लेकिन यह हमें सोचने के लिए बाध्य करता है.

    • अश्वनी कुमार

      गुरु जी…धन्यवाद!!!

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