लघु उपन्यास : करवट (दूसरी क़िस्त)
रधिया ने चार आलू काटकर, दो प्याज की महीन फाँकें काटकर कराही में छौंक लगा दी और दूसरी तरफ चूल्हे पर रोटी के सेंकने को जारी रखा। रमुआ खुशी से उछल पड़ा, बोला- ‘माई मोर चिरइया रोटी बन गईल बा, तनी मोर रोटी पका दे माई।’ रधिया ने रमुआ की मेहनत को पहचाना और उसकी रुचि को देख उसकी रोटी तवे पर डाल कर पहले से पड़ी रोटी को चूल्हे की लकड़ी किनारे करके चूल्हे की दीवाल के सहारे से फूलने के लिए घूमाने लगी। रमूआ से बोली- ‘बेटवा जाके बाबू के खाना खाए के बोला लियावा।’
धनुवा को जब रमुआ ने जगाया और कहा- ‘बाबू खाना खाये के माई गोहरावत बा चलके खाना खाय ल।’ रमुआ और धनुवा के लिए रधिया ने एक ही थाली में खाना निकाल दिया। रमुवा अपनी चिरईया रोटी पाकर इधर उधर घूम-घूम कर खाने लगा। धनुवा मेहनत के बाद दो रोटी पाया और भगवान को धन्यवाद देकर खुशी मन से खाना खाने लगा।
एक दिन ठाकुर राजेन्द्र सिंह ने कहारों के गाँव में एक आदमी को भेजकर धनुवा को बुलाने भेजा। धनुवा को अन्दर से एक भय कचोट रहा था कि आखिर ठाकुर साहब द्वारा इस तरह का बुलावा क्यों भेजा गया है और उसने आखिरकार बुलाने आये हरवाहे से पूछ ही लिया- ‘बाबू साहब हमहने से कौनौ गलती भईल बा कि ठाकुर साहब बोलावा भेजले हवै।’
छोटा सा एक जवाब मिला- ‘नाही अइसन कौनो बात नाही, बस हमसे नाही कहे के कहेले हैन।’
धनुवा तेज गति से पगडण्डी पार करने लगा। इसी क्रम में कई बार पैर बेकाबू होकर फिसल गये। फिर सँभलते हुए ठाकुर साहब के द्वार पर पहुँचा। पहँुचने पर उसकी साँसें उखड़ी हुई थीं। ठाकुर साहब अपनी मड़ई के सामने नीम की छांव में तख्ते पर बैठे हुए थे। धनुवा ने कहा- ‘बाबू साहब पाँव लागू, का हमहने से कौनो गलती भइल बा का।’
ठाकुर साहब ने पहले आर्शिवाद स्वरूप ‘जियत रह’ कहा। फिर बोले- ‘नाही, देख धनुवा हमार एकगो इच्छा बा कि तोहरे रमुआ का पढ़े वास्ते दाखिला हम करा देई और कुल खर्चा भी हमही करै चाहत हई। हमार ई इच्छा तोहइ से पूर हो सकेला।’
धनुवा के मन की स्थिति मेें उहापोह चल रही थी कि वह हां करे या ना करे। अपनी परिस्थिति को देखा और साथ ही ठाकुर साहब के अन्दर अपने बेटे के प्रति उठने वाली भावना को देखा, यदि अपने बेटे को पढ़ाने के लिए वह ऐसा प्रयास भी करता तो उसको नाकों चने चबाने पर भी यह करना सम्भव नहीं होता। अतः उसने ठाकुर साहब को हां करते हुए कहा- ‘बाबू साहब आप हमार देवता नियर हो गयेन, हमन गरीब के खर मेटाव के जोड़-तोड़ से समय निकसत तबै त हम इ कुल सोच पाईत, आप क इ बात हमके मन्जूर बा।’ पास ही बैठे हुए दीवानपुर प्राइमरी पाठशाला के प्रधानाचार्य से ठाकुर साहब ने कहा- ‘आप रमुआ का दाखिला अपने स्कूल में कर लीजिए। इसकी फीस हम दिया करेंगे। इस बात का भी ध्यान रखिएगा कि कापी किताब की कोई कमी न होने पाये।’
रमुआ की जिन्दगी ने करवट बदल दी थी। धनुवा ने रधिया को जब आकर ठाकुर साहब से होने वाली बातों को बताया, तो रधिया का मन सातवें आसमान तक उछलने लगा। रधिया ने धनुवा से कहा- ‘आज तू हमके ऐसन खबर दिहले हौवा कि हमार छाती खुशी के मारे फटल जात बा। एही खुशी के बतिया पर तोहके हम आटा के हलुवा खियाइब।’ रधिया झट से नन्दू के घर से थोड़ा सा घी मांग कर लाई और घर में रखे आटे से बिना देर लगाए ही हलुवा बनाने लगी। सच तो यह था कि वह हलुवा न होकर उनकी खुशी की मिठास थी जो हलुवा के रूप में एक दूसरे को परोस कर खिलायी जा रही थी।
धनुवा की बखरी (मकान) कच्चे गारे के दीवाल पर फूस की ही छत डालकर बनी हुई थी। सामने नीम की छांव, महुवा की लटकी डाल पर पुराने पटरे से रस्सी के सहारे जो झूला लटक रहा था। रमुआ के लिए वह झूला किसी सोने की जंजीर के सहारे से झूलते हुए झूले से कम नहीं था। रमुआ का अपने साथियों के साथ झूला झूलना, दौड़-दौड़ कर एक दूसरे को छूने का खेल खेलना, एक फटी लंगोट सी पैन्ट में नंगे बदन स्वच्छन्द, अपने मन की उड़ान भरते हुए पगडण्डी पर दौड़ लगाना, रधिया के पीठ पर लद करके रोटियां बनाना, धनुवा की पीठ को पैरों से दबाकर दर्द निवारण करना, रमुआ को माता-पिता के प्यार का ही पात्र बनाता था।
रमुआ की जिन्दगी में एक भोर की लाली, दुनिया की तमाम स्वच्छन्दता पर नियंत्रण लगाकर उसे स्कूल जाने वाला एक राजकुमार बनाने वाली थी इस बात से बेखबर, वह खेलने में मगन था। दिन भर की थकान के बाद में रात की चांदनी होने पर वह बेखबर सोने जा रहा था। रमुवा के जीवन में भोर की लाली बनकर ठाकुर साहब आ गये और उस अल्हड़ बालक को रमुवा कहार से उठाकर राजकुमार बनाते हुए बहुत आगे ले जाने की राह दिखा रहे थे। रमुवा की जिन्दगी करवट ले चुकी थी इस बात से वह अनजान था।
जारी…
उपन्यास रोचक है. रमुआ के जीवन में कैसी करवट आ रही है, यह देखना रोचक होगा.
विजय जी आपको धन्यवाद है जो करवट इस करवट (मुकाम) पर है