कविता : खुरदुरा प्रेम …
मैँ धो देना चाहती हुँ
अपने सारे गम
रंजिश व तपिश
बदन की !
उस शावर के नीचे
और उस मोटे
खुरदुरे तौलिए से
रगड़ कर
साफ कर देना चाहती हूँ
काई सी जमी
उस प्रेम को
जिसमेँ उग आए हैँ
कई कुकुरमुत्ते
अनचाहे अनजाने . . .
बोना चाहती हुँ
उसमेँ
कई सारे गुलाब
जिसने काँटे की चुभन को
सह कर भी
सीखा है जीना . . .
बन जाना चाहती हुँ
एक निश्छल मुस्कान
उस अबोध बालक की तरह
जिसने न कभी जाना
गम ए जिन्दगानी
काश
कि हम सब बच्चे होते
न होती दुनियादारी
न ये होशियारी
और
कलाकारी!!!
सीमा जी कविता बहुत अच्छी लगी . खुरदरा प्रेम , वाह ! किया सिरलेख है .
बहुत बहुत धन्यवाद, भमरा जी.
अच्छी कविता, सीमा जी.