लगाव (लघु कहानी)
“बुढऊ देख रहें हो न हमारे हँसते-खेलते घर की हालत!” कभी यही आशियाना गुलजार हुआ करता था! आज देखो खंडहर में तब्दील हो गया|”
“हा बुढिया चारो लड़कों ने तो अपने-अपने आशियाने बगल में ही बना लिए है! वह क्यों भला यहाँ की देखभाल करते|”
“रहते तो देखभाल करते न” चारो तो लड़लड़ा अलग-अलग हो गये|”
“उन्हें क्या पता उनके माता-पिता की रूह अब भी भटक रही है! यही खंडहर में वे अपने लाडलो के साथ बीते समय को भला कैसे भुला यहाँ से विदा होतें! दुनिया से विदा हो गये तो क्या?” लम्बी सी आह भरी आवाज गूंजी
“और जानते हो जी, कल इसका कोई खरीदार आया था, पर बात न बनी चला गया! बगल वाले जेठ के घर पर भी उसकी निगाह लगी थी|”
“अच्छा बिकने तो ना दूंगा जब तक हूँ …..!” खंडहर से भढभडाहट की आवाज गूंज उठी वातावरण में
“शांत रहो बुढऊ काहे इतना क्रोध करते हो”
“सुना है वह बड़का का बेटा शहर में कोठी बना लिया है! अपने बीबी बच्चों को ले जाने आया है …!”
“हा बाप बेटे में बहस हो रही थी ..! अच्छा हुआ हम दोनों समय से चल दिए वर्ना इस खंडहर की तरह हमारे भी …..|” ++ सविता मिश्रा ++
अच्छी व्यंग्य कथा, बहिन जी. आजकल के बच्चे बूढ़े माँ बाप को फालतू सामन या कबाड़ से ज्यादा महत्त्व नहीं देते. वे भूल जाते हैं कि कभी उनको भी बुढ़ापा आएगा.
सादर नमस्ते भैया …..सही कहें आप